Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ लोकवार्त
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बाची शब्द " प्रमत्तस्वामिकं बना लिया जाता । प्रथमा विभक्तिवाले विशेषण भी कचित् ज्ञापक हेतु अर्थमें तत्पर माने जाते हैं। जैसे कि " गुरवो राजमाषा न भक्षणीयाः " प्रकृतिमें भारी होने से रमास नहीं खाने चाहिये, उसी प्रकार इतर शरीरोंसे व्यावृत्तिको साधने के लिये आहारक शरीर के सम्पूर्ण विशेषणोंको यहां अव्यभिचारी ज्ञापक हेतु बना दिया गया है । पहिला शुभविशेषण तो आहारक शरीरका फल है । दूसरा विशुद्ध विशेषण आहारक शरीरका कारण है। तीसरा अव्याघाति विशेषण तो आहारक शरीरका स्वरूप है और चौथा विशेषण आहारक शरीरके अधिपतिका बखान करनेवाला है । भेद सिद्ध करनेके लिये ये विशेषण पर्याप्त हैं ।
आहारकं वैक्रियिकादिभ्यो भिन्नं शुभफलत्वादित्यत्रानैकांतिकत्वं हेतोः वैक्रियिकादेरपि शुभफलस्योपलंभादिति न मंतव्यं, नियमेन शुभफलत्वस्य हेतुत्वात् । विशुद्धिकारणत्वात् ततो भिन्नमित्यत्रापि लब्धिप्रत्ययेन वैक्रियिकादिना हेतोरनेकांत इति नाशंकनीयं, नियमेन विशुद्विकारणत्वस्य हेतुत्वात् । समुद्भूतलब्धेरपि क्रोधादिसंक्लेशपरिणामवशाद्विक्रियादेर्निर्वर्तनाद्विशुद्धिकारणत्वनियमाभावात् ।
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पशु पक्षिओं के
यहां किसीका आक्षेप है कि आपने जो पहिला अनुमान यह कहा है कि शुभ फलवाला होनेस आहारक शरीर वैकियिक आदिकोंसे भिन्न है । यों इस अनुमानमें तुम्हारा दिया हुआ शुभ फलव हेतु तो व्यभिचार हेत्वाभास दोषवाला है । क्योंकि कोई कोई वैक्रियिक, औदारिक आदि शरीरोंके भी शुभफल सहितपना देखा जाता है। यानी उपकारी पुरुष, ब्रह्मचारिणी विशल्या या परिहार विशुद्धि संयमवाले अथवा औषध ऋद्धिधारी मुनियोंके औदारिक शरीर तथा तपस्वियों के वैकियिक शरीर या उपकारी देवोंके वैकियिक शरीर भी शुभ फलदायक हैं । आचार्य कहते हैं कि यह तो आक्षेपकारको नहीं मानना चाहिये । क्योंकि हमने हेतुमें नियमेन यह शब्द जोड दिया है जो नियम करके शुभ फलबाला होय वह आहारक ही है । बहुतसे कषायी, हिंसक, मनुष्य औदारिक या संक्लिष्ट असुरोंके वैक्रियिक शरीर तो नियमसे शुभफलवाले नहीं हैं । दोषका निवारण हो जाता है । दूसरे हेतुमें पुनः किसीकी आशंका है कि आहारक उन वैकियिक आदिकोंसे भिन्न हैं ( साध्य ) विशुद्ध कारण होनेसे ( हेतु ) इस अनुमानमें भी लब्धिकारणक वैक्रियिक आदि करके विशुद्धकारणत्व हेतुका व्यभिचार हो जाता है, मुनियों के हुआ वैक्रियिक शरीर भी विशुद्ध कारणवाला है । प्रशस्त तैजस शरीर भी विशुद्ध कारण है । ग्रन्थकार हैं कि यह आशंका नहीं करनी चाहिये। क्योंकि यहां भी हेतु दलमें नियमको कहनेवाला एवकार लगा देना चाहिये । सभी वैक्रियिक या तैजसशरीर विशुद्धि कारण नहीं हैं।" प्रमत्तसंयतस्यैव " यहां अंतमें एवकारको पूर्वपदोंमें भी अन्वित कर लेना चाहिये । नियम करके विशुद्धिकारण आहारक ही
अतः व्यभिचार
शरीर ( पक्ष )
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पडे
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है । जिनको विशेष तपस्यासे ऋद्धि उत्पन्न हो चुकी है, ऐसे मुनिके भी कदाचित् क्रोध, अरति,