Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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२४८:
तत्वार्थश्लोकवार्तिक
वैक्रियिक शरीर और प्रसंगप्राप्त विशेष तैजस शरीरका निरूपण कर चुकनेपर श्री उमास्वामी महाराज अब वर्तमान कालमें प्रकरण प्राप्त आहारक शरीरका निर्धारण कराते हैं ।
शुभ विशुद्ध मव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥ ४९ ॥
शुभकर्म माने गये आहारक काययोगका कारण होनेसे आहारक शरीर शुभ है । स्वयं मूलमें भी शुभ है, जैसे कि शुभ या परम अतीन्द्रिय सुखका कारण होरही अहिंसा निज गांठकी भी शुभ और परम सुखस्वरूप है | और पूर्व कालमें उपार्जित विशुद्ध पुण्यकर्मका कार्य होनेसे आहारक शरीर विशुद्ध है। निजस्वरूपमें भी विशुद्ध है, धवल है, यानी सर्वार्थसिद्धि के देवों के शरीर समान स्वच्छ शुक्ल वर्ण है । आहारक शरीरसे किसी अन्य पदार्थको आघात नहीं पहुंचता है । अन्य पर्वत, जल, अग्नि आदि पदार्थोंसे आहारकशरीरका भी व्याघात नहीं हो पाता है । ऐसा आहारक शरीर छठे गुणस्थान वर्ती प्रमादयुक्त संयमी मुनिके ही कदाचित् पाया जाता है । अर्थात् - छठे गुणस्थानवर्ती मुनि कभी लब्धिविशेषको जानने के लिये या कभी सूक्ष्मपदार्थका निर्णय करनेके लिये, जिनचैत्यालयों की वंदना करने के लिये अथवा असंयमको दूर करने के लिये, स्वकीय अव्यक्त पुरुषार्थ द्वारा आहारक शरीरको रचते हैं । निकटवर्ती स्थानोंमें केवली या श्रुतकेवलीका सन्निधान नहीं होनेपर उक्त प्रयोजनोंको साधनेके लिये दूरवर्त्ती केवलियोंके पास पहुंचने में स्थूल औदारिक शरीर से गमन करते हुये महान् असंयम हो जाना संभावित है । औदारिक शरीरसे वहां इतना शीघ्र पहुंच भी नहीं सकते हैं । अतः मुनि महाराज इस धातुरहित, संहननरहित, शुभसंस्थान, स्वच्छ धौले, अव्याघाति, आहारकशरीर को बनाकर अपने उत्तमांग शिरसे निकालते हैं । आहारकशरीरमें आंखे, कान, नाक, हथेली, अङ्गुली आदि सम्पूर्ण अंग, उपांग पाये जाते हैं । ढाई द्वीपमें कहीं भी विराज रहे केवली या श्रुतकेवली मुनिका दर्शन कर वह लौट आता है । अथवा जिनचैत्यालय या तीर्थकर महाराजके तपःकल्याणकका निरीक्षण कर लौट आता है, एक बार बनाया गया आहारकशरीर अन्तर्मुहूर्त्ततक टिका रह सकता है, पश्चात् विघट जायगा ।
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शुभं मनःप्रीतिकरं विशुद्धं संक्लेशरहितं अव्याघाति सर्वतो व्याघातरहितं च शद्बादुक्तविशेषणसमुच्चयं । एवं विशिष्टमाहारकं शरीरमरत्निमात्रं प्रमत्तसंयतस्यैव मुनेर्नान्यस्येति प्रतिपत्तव्यं ।
सूत्रमें पडे हुये शुभ शद्वका अर्थ मनको प्रीति कर देनेवाला है । विशुद्धका अर्थ तो आहारक शरीर संक्लेश परिणामोंसे रहित है । सब ओरसे न तो अपना व्याघात होय और न अपने दूसरे पदार्थों को आघात पहुंचे ऐसा व्याघातरहित आहारक शरीर अव्याघाति है । सूत्रमें पडे हुये च शद्वसे उक्त दो विशेषणोंका समुच्चय हो जाता है। इस प्रकार कई विशेषणोंसे युक्तः हो रहा यह हस्त (अरत्नि)