Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
तैजसमपि किंचित्तादृशमित्याह ।
श्री उमास्वामी महाराजके प्रति किसीका प्रश्न है कि क्या तैजस शरीर भी कोई तिस प्रकार लब्धिको कारण मानकर उपज जाता है ? आज्ञा दीजिये, यों विनीत शिष्यकी जिज्ञासाको हृदयङ्गत कर श्री उमास्वामी महाराज समाधानकारक अग्रिम सूत्रको कह रहे हैं ।
तेजसमपि ॥ ४८ ॥
किन्हीं किन्हीं तपस्वियों के तैजस शरीर भी लब्धिको कारण मानकर उपज जाता है 1
लब्धिमत्ययमित्यनुवर्तते, तेन तैजसमपि लब्धिप्रत्ययमपि निश्चयं ।
पहिलेके “ लब्धिप्रत्यय च " सूत्रसे लब्धिप्रत्ययं इस पदकी अनुवृत्ति कर ली जाती है तिस कारण तैजस शरीर भी कोई कोई लब्धिको कारण मानकर भी उपज बैठता है, यह निश्चय कर लेना चाहिये | पहिला अपि शब्द वैक्रियिकका साहित्य करने के लिये है और दूसरा अपि शद्ब तो सभी संसारी जीवों के साधारण अलब्धिप्रत्यय तैजस शरीरका सहभाव करनेके लिये सार्थक है ।
तदपि लब्धिप्रत्ययतागतेरेव भिन्नमौदारिकादेरित्याह ।
लब्धिको कारण मानकर उपजनेकी ज्ञप्ति हो जानेसे ही वह लब्धिप्रत्यय तैजस शरीर भी औदारिक, वैक्रियिक, आदिक शरीरोंसे भिन्न है, इसी बातको ग्रन्थकार अग्रिमवार्तिक द्वारा कह रहे हैं । तथा तैजसमप्यत्र लब्धिप्रत्ययमीयतां ।
साधारणं तु सर्वेषां देहिनां कार्यभेदतः ॥ १ ॥
जिस प्रकार लाब्धप्रत्यय वैक्रियिक शरीर है उसी प्रकार यहां तैजस शरीर भी लब्धिप्रत्यय समझ लेना चाहिये। हां, पहिले गुणस्थान से प्रारम्भ कर चौदहवें गुणस्थानतक सम्पूर्ण संसारी जीवों के पाया जानेवाला साधारण रूपका जो तैजस शरीर है वह तो अपने अपने कर्तव्य कार्यों के भेद से निराला है अर्थात्-तेजोवर्गणासे बन कर सभी संसारी जीवोंके पाया जा रहा सूक्ष्म तैजसशरीर न्यारा है, जिसका . कि . कार्य सभी संसारी जीवों के शरीर में साधारण रूपसे प्रभाकी उत्पत्ति कर देना है | शरीरमें विलक्षण कांति या विशेष लावण्य तो आदेय संज्ञक नामकर्मका कार्य है, तथा नियतदेशमें सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, अग्निदाह, आदि कर देना इस लब्धिप्रत्वंय तैजसशरीरका कार्य है । इस कारण कार्मणशरीर के साथी साधारण तैजसशरीरसे इस लब्धिप्रत्यय तैजसमें भेद है । औदारिक, वैौक्रयिक, आहारक और कार्मणसे तो इसका भेद सुप्रसिद्ध ही है ।
लब्धिप्रत्ययं तैजसं द्विविधं, निस्सरणात्मकमनिःसरणात्मकं च । द्विविधं निःसरणात्मकं च प्रशस्ताप्रशंस्तभेदात् लब्धिप्रत्यत्वादेव भिन्नं शरीरांतरं गम्यतां यत्तु सर्वेषां संसारिणां साधारणं तैजसं तत्स्वकार्यभेदाद्भिन्नमीयतां ।