Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
अब यहां किसीकी दूसरे प्रकार की शंका खड़ी होती है कि नीचे नीचे सात भूमियोंमें जीवों की विचित्ररूपसे गति होना तो विरुद्ध है । यदि समतलपर सातों भूमियां होती तब तो कोई जीव कहीं और अन्य जीव दूसरी भूमियोंमें चला जा सकता था। कई भूमियों को भेदकर नीचे जीवका जाना कठिन है । तिस कारण उन अन्तरालवर्त्ती भूमियोंसे उन भूमियोंको शून्य ( रीता ) होना चाहिये और तिस प्रकार अन्तरालरहित भूमियों के हो जानेपर उन सात भूमि - योंकी कल्पना करना व्यर्थ है । उत्तरोत्तर अधिक पापको धारनेवाले जीवोंके विशेष अधिकरणोंकी प्ररूपणा के लिये ही तो उन भूमियोंकी लम्बी चौडी, संख्याओंमें कल्पना करना श्रेष्ठ था । अन्यथा नहीं । केवल एक भूमि मानना ही पर्याप्त है, उसीमें जीवोंको गति सुलभतासे सम्भव जाती है । इस प्रकार कह रहे वादीके प्रति श्री विद्यानन्द आचार्य समाधानको कहते हैं ।
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नाधोधो गतिवैचित्र्यं विरुद्धं प्राणिनामिह ।
तादृक् पापस्य वैचित्र्यात्तन्निमित्तस्य तत्त्वतः ॥ १५ ॥
इन भूमियोंमें नीचे नीचे प्राणियों की गति की विचित्रता विरुद्ध नहीं है । क्यों कि वास्तविक रूपसे उस विचित्र गतिके निमित्त हो रहे तिस जातिके पापकी विचित्रता पायी जा रही है। अर्थात् मर जानेपर संसारी जीवकी गति लोकमें सर्वत्र अप्रतीघात है । मात्र तैजस कार्माण शरीरोंको धार रहा जीव कहींसे कहीं भी जाकर जन्म ले सकता है । भूमि, पर्वत, समुद्र, कोई उसे रोक नहीं सकते हैं ।
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प्रसिद्धं हितावदशुभफलं कर्म पापं तस्य प्रकर्षतारतम्यं तत्फलस्य प्रकर्षतारतम्यादिति प्राणिनां रत्नप्रभादिनरकभूमिसमुद्भूतिनिमित्तभूतस्य पापविशेषस्य वैचित्र्यात्तद्गतिवैचित्र्यं न विरुध्यते तिर्यगादिगतिवैचित्र्यवत् । यत एवं -
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अशुभ फलों को देनेवाला पापकर्म तो जगत् में प्रसिद्ध ही है, उस पापके फलकी प्रकर्षताका तारतम्य देखा जाता है । इस कारण उस पाप के प्रकर्षका तारतम्य भी सिद्ध है । अर्थात् दरिद्री, दुःखी, पीडाक्रान्त, रोगी, जीवोंमें अनेक जातिके पाप फलोंकी अतिशय वृद्धियां देखी जाती हैं । किसीको अल्प रोग है । अन्यको विशेष वेदनावाला रोग है । तृतीयको असाध्य रोग है । अथवा कोई अल्पधनी है, दूसरा दरिद्र, तीसरेको भरपेट भोजन भी नहीं मिलता है, चौथा उच्छिष्ट मांगकर भी उदरज्वालाको शांत नहीं कर सकता है, यों पापके फलोंकी प्रकर्षता बढ़ती बढती देखी जा रही
है। इसी प्रकार नरकगामी प्राणियों के रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, आदि नरक भूमियोंमें ठीक उत्पन्न करा देने के निमित्त हो चुके विशेषपाप की विचित्रतासे उन उन पृथ्वियोंमें नीचे नीचे गमन कर जानेकी विचित्रता का कोई विरोध नहीं आता है जैसे कि तिथेच आदि गतियों की विचित्रताका अविरोध प्रसिद्ध