Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
सार, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, आदि ग्रंथोंकी रचना करने वाले आचार्योंके वचन भी प्रमाण हैं। सिद्धांत अर्थके अविरोध करके सूत्रोंकी सामर्थ्यसे विना कहे ही प्राप्त होचुके उन उन विशेष अर्थाका व्याख्यान कर रहे वार्तिककार श्री अकलंक देव, श्री विद्यानन्द स्वामी अथवा अन्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती, श्री वीरनन्दी सिद्धांतचक्रवर्ती, आदि प्रकाण्ड विद्वान् तो उत्सूत्रवादीपन दोषको नहीं प्राप्त होजाते हैं। अर्थात्-जो परमागम सूत्र सिद्धांतों का उल्लंघन कर मनमानी झूटी सांची गप्पोंको हांकते हैं वे उत्सूत्र भाषी हैं । किन्तु श्री अकलंक देव, श्री नेमिचन्द्र महाराज आदि आचार्य तो गुरुपरिपाटी अनुसार उन्हीं सिद्धांत सूत्रों का स्वकीय ग्रंथोंमें व्याख्यान करते हैं । लोकमें प्रसिद्ध होरहा यह वचन है कि व्याख्यान कर देनेसे परिज्ञात सामान्य अर्थके विशेषोंकी प्रतिपत्ति होजाती है, संदेह कर देनेसे वह सामान्य रूपसे सिद्धांतित कर दिया गया लक्षण कोई कुलक्षण या लक्षणाभाव नहीं होजाता है । हां, यह लक्ष्य रखा जाय कि वह अतीन्द्रिय पदार्थोका निरूपण दृष्ट, इष्ट, और पूर्वापार प्रकरणोंस अविरुद्ध होना चाहिये । कोई भी विचारशील विद्वान् सर्वज्ञधारासे चले आरहे प्रमेयका प्रतिपादन करदे वह उत्सूत्रभाषीपन दोषका पात्र कालत्रयमें भी नहीं होसकता है ।
ननु च धातकीखंडे द्वौ भरतौ द्वौ हिमवंतावित्यादिद्रव्याभ्यावृत्तौ द्विरित्यत्र सुजसंभव इति चेन, मीयंत इति क्रियाध्याहारात् विस्तावानिति यथा, तेने धातकीखंडे भरतादिवर्षोहिमवदादिवर्षधरश्च इदादिश्च द्विर्मीयत इति सूत्रितं भवति ।
___ यहां कोई पण्डित दूसरे प्रकारकी शंका उठाता है कि धातकी खण्डमें दो भरत क्षेत्र हैं । दो हिमवान् पर्वत हैं, दो हैमवत क्षेत्र हैं, दो महाहिमवान् पर्वत हैं, इत्यादि रूपसे द्रव्यकी अभ्यावृत्ति करनेपर द्विर् इस पदमें सुच् प्रत्यय करने का असम्भव है। क्योंकि " द्वित्रिचतुर्थ्यः सुच् " इस सूत्र अनुसार क्रियाकी अभ्यावृत्ति गिननेमें सुच् प्रत्यय हो सकता है । भरत हिमवान् आदि द्रव्योंके बार बार गिननेमें सुच्प्रत्ययका विधायक कोई व्याकरणका सूत्र नहीं है। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि " मीयते " यानी नापे जा रहे हैं, इस क्रियाका अध्याहार अर्थात् उपरिष्ठात् उपस्कार कर लेनेसे उसी सूत्र द्वारा सुच्प्रत्यय कर लिया जाता है, जैसे कि यह प्रासाद ( हवेली ) उस परिमाणवाला दो बार है । इस वाक्यमें " नापा जाता है " इस क्रियाका अध्याहार कर दो बार उतना नापा जाता है। यों द्विस्तावान् पदमें सुच् प्रत्ययकी घटना हो जाती है । उसी प्रकार " द्विर्धातकीखण्डे " यहां भी संख्यावाची द्वि शब्दसे क्रियाकी पुनरावृत्ति गिननेमें सुच्प्रत्यय तद्धितवृत्तिमें कर लिया जाता है । तिस करके धातकी खण्डमें भरत, हैमवत, आदिक क्षेत्र हिमवान् , महाहिमवान् , आदि पर्वत तथा हृद, नदी, मेरु, आदि दो, दो होकर संख्या द्वारा नाये जाते हैं, यह सूत्र द्वारा अर्थ उक्त हो जाता है ।
कियान् पुनर्धातकीखण्डे भरतस्य विष्कम इत्युच्यते-पष्टिशतानि चतुर्दशानि योजनानामेकान्नत्रिंशच्च भागशतं योजनस्याभ्यंतरविष्कभः। सैकाशीतिपंचशताधिकद्वादश