Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकबातिकै
विरोध आवेगा। हां “ सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् " जातिके इस सिद्धांतलक्षण अनुसार प्रतिनियत व्यक्तियोंमें प्राप्त होरही असर्वगत और सादृशस्वरूप ही जातिका प्रत्यक्ष होरहा है। अनेक मनुष्योंमें चाहे वे चांडाल या म्लेच्छ ही क्यों न होय, ब्राह्मण, क्षत्रिय, मनुष्योंका सादृश्य वर्त रहा है । संपूर्ण घोडे समान हैं, चाहे पांच रुपये का टटुआ हो अथवा भले ही पांच हजार रुपयोंका बढिया घोडा होय, सबमें अश्वत्वरूप करके सादृश्य वर्त रहा है । मुखमें चंद्रकी सदृशता या गवय .( रोझ ) में गायकी सदृशता दूसरी वस्तु है। जातिस्वरूप सादृश्य तो एक ही जातिकी अनेक व्यक्ति. योंसे अभिन्न होरहा है । यद्यपि गवय निरूपित गोनिष्ठ सादृश्य भी गोसे अभिन्न है और गोनिरूपित गवयनिष्ठ सादृश्य गवयसे अभिन्न है । सदृश वस्तुओंसे निराली कोई तीसरी जातिका सादृश्य वहां दीखता नहीं है । तथापि आरोपित सादृश्यमे जातिस्वरूप सादृश्य निराला ही है, जो कि समान जाति वाली व्यक्तियोंमें ही ठहरेगा। जब कि अव्यापक होरहीं घट, पुस्तक, गो, आदि व्यक्तियोंका आबाल, गोपालतकको प्रत्यक्ष होरहा है, ऐसी दशामें व्यक्तियोंसे अभिन्न होरही जातिको अव्यापक मानना ही युक्तिपूर्ण है । तैसा होनेपर जाति ( पक्ष ) मगत नहीं है ( साध्य ) प्रत्येक नियत होरही व्यक्तियों का परिणाम होनेसे ( हेतु ) विशेष पदार्थ के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) इस अनुमानसे जातिके अध्यापकपनकी सिद्धि होजाती है । यदि यहां कोई वैशेषिक यो प्रश्न करे कि फिर वह सादृश्यस्वरूप सामान्य भला किस प्रमाणसे सिद्ध कर दिया गया है ! बताओ। इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिमवार्तिकको कहते हैं। .. सिद्धं सादृश्यसामान्यसमाना इति तद्ग्रहात् ।
कुतश्चित्सहशेष्वेव मनुष्येषु गवादिवत् ॥ १२ ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वाय, पतित, म्लेच्छ, भोगभूमियां, कुभोगभूमियां, लब्ध्यपर्याप्तक, इन संपूर्ण मनुष्योंमें सदृशपरिणाम स्वरूप सादृश्य माना जा रहा सामान्य प्रसिद्ध है ( प्रतिज्ञा ) किसी न किसी अंतरंग परिणतिस्वरूप कारण से " सदृशोंमें ही ये समान है " " ये सदृश हैं " इस रूपसे उन पदार्थोंका ज्ञान द्वारा परिग्रहण होनेसे ( हेतु ) गौ, अश्व आदिके समान (अन्वयदृष्टांत )। भावार्थ-जैसे खंड, मुंड, आदि अनेक प्रकारकी गायोंमें यह इसके समान है, यह इसकी सजाति है, यों परिग्रहण होरहा होनेसे सदृशपरिणामरूप गोत्वसामान्य प्रसिद्ध है, उसी प्रकार मनुष्योंमें जाति द्वारा सभी मनुष्य समान हैं, यह प्रतिपत्ति होरही है । अतः सदृशपरिणामरूप मनुष्यत्वजाति सिद्ध होजाती है। अन्यथा व्यक्तियोंको जातिसे भिन्न माननेपर अनवस्था दोष आवेगा। वैशेषिकोंके " नित्यत्वे सति व्यापकत्वे च सति गोसमवेतं गोल” और “गवेतरासमवेतत्वे सति सकलगोसमवेतत्वं गोत्वत्यै ये सब लक्षण अविचारितरम्य है । सदृशपना पदार्थों की एक परिणति है, वहीं जाति है। पदार्थोके तदात्मक स्वरूप में निराला कोई न्यारी जातिका बोझ उन पदार्थोपर लदा हुआ नहीं है, जैसे