Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
एवं सूत्रत्रयोन्नीतस्वभावा नारकांगिनः । स्वकर्मवशतः संति प्रमाणनयगोचराः ॥ ३ ॥
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ऊपरली तीन भूमियोंमें नारकियोंको संक्लिष्ट असुरों करके दुःखकी उदीरणा कराई जाती है जैसे कि तिस जातिके संक्लेश स्वरूपवाले प्रतिमल्ल या मेढा आदिको लडानेवाले कलह प्रिय मनुष्यों करके मेढा, तीतर, बैल, आदिके दुःखोंकी उदीरणा करा दी जाती है। उन असुरकुमारोंका परली चौथी, पांचवीं, आदि भूमियोंमें गमन नहीं होता है । तिस कारण उन चौथी आदि भूमियोंमें निवास करनेवाले शरीरधारी नारकियों के दुःखकी उत्पत्ति में उन असुरकुमारोंको निमित्तकारणपना विद्यमान नहीं है । इस प्रकार " नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामवेदनाविक्रियाः, परस्परोदीरितदुःखाः, संक्किष्टासुरोदीरितदुखाश्च प्राक्चतुर्थ्याः " इन तीन सूत्रों करके नारक प्राणियोंके परिणाम आगमप्रमाणद्वारा भले प्रकार समझ लिये गये हैं । अपने पूर्व उपार्जित कर्मोकी अधीनतासे नारकी जीव 1 तिस प्रकार अशुभ परिणाम या दुःखोंके भाजन बन रहे हैं । वे तिस प्रकारके नारकी जीव तो प्रमाण और नयके विषय हो रहे जान लिये जाते हैं । अतः आगमके समान युक्तियों का भी वहां अवकाश है।
प्रमाणं परमागमः स्याद्वादस्तद्विषयास्तावद्यथोनीता नारका जीवाः साकल्येन तेषां ततः प्रतिपत्तेः नयविषयाश्च विप्रतिपत्तिसमाक्रांतैकदेशप्रत्तिपत्तेरन्यथानुपपत्तेरिति प्रमाणनयैरघिगमो नानानारकाणामूचः ।
सर्वोत्कृष्ट आगमप्रमाण स्याद्वाद सिद्धान्त है, उसके विषय हो रहे वे पूर्वोक्त कथन अनुसार नारकी जीव ज्ञानलक्षणप्रत्यासत्ति द्वारा जान लिये गये ही हैं। क्योंकि उस आगमप्रमाणसे उन नारकियोंकी सम्पूर्णरूपसे प्रतिपत्ति हो जाती है तथा नय ज्ञानके भी विषय होरहे नारकी जीव हैं । क्योंकि विवादस्थलमें भले प्रकार प्राप्त हुये विषय की एक देशसे प्रतिपत्ति होनेकी अन्यथा यानी नयप्रवृत्तिके विना असिद्धि है, इस प्रकार अनेक नारकियोंका प्रमाण और नय करके अधिगम करना, विचार लेना चाहिये । अर्थात् वस्तुकी साकल्येन प्रतिपत्ति करानेवाला प्रमाणज्ञान है और वस्तुके एक देशकी प्रतिपत्ति करानेवाला नय है, इनके द्वारा नारकियोंकी सम्पूर्ण व्यवस्था जानी जाती है । नरक भूमियोंके प्रस्तार, इन्द्रकबिल, श्रेणी बिल, पुष्पप्रकीर्णक बिल, उष्णनरक, शीतनरक, संख्यात या असंख्यात योजनवाले बिले, शरीरकी उच्चाई, भोजन, पान, आदि व्यवस्थाओं को स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा निर्णय कर लेना चाहिये । संक्षेप कथनका लक्ष्य होजाने पर विस्तृत कहने की रुचि नहीं होती है । “प्रमाणनयैरधिगमः " यह सूत्र सर्वत्र अन्वित हो रहा है। तदनुसार अल्प रुचिवाले या मध्यम रुचिवाले अथवा विस्तृत विचारवाले श्रोताओं को वैसे वैसे साधनोंद्वारा प्रमेयोंकी प्रतिपत्ति कर लेनी चाहिये ।