Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
धार रही उत्कृष्ट स्थिति है और शर्कराप्रभामें नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम प्रमाण है । वालुकाप्रभामें नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम परिमित है । पंकप्रभामें नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम प्रमाणसे भरपूर है । धूमप्रभामें नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति सत्रह सागरोपम परिमाणवाली है । तमःप्रभामें नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपमसे नाप दी गयी है और सातवां महातमःप्रभामें निवास कर रहे असंख्याते नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति उपमा प्रमाणद्वारा तेतीस सागरकी परिमित कर दी गयी है । इस प्रकार सूत्रकारने कण्ठोक्त उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन कर दिया है । विना कहे ही परिशेष वचनकी सामर्थ्यसे अनेक प्रकारकी मध्यमा स्थितिका आगमको अतिक्रमण नहीं कर निर्णय कर लिया जाता है। क्योंकि " तन्मध्यपतितस्तदग्रहणेन गृह्यते " इस नीति अनुसार उत्कृष्ट और जघन्यके बचिकी मध्यमा स्थिति तो यों ही गम्यमान हो जाती है । इस ग्रन्थमें संक्षेपसे कथन करनेका लक्ष्य रखनेके कारण जघन्य स्थितिको स्वयं सूत्रकार चौथे अध्यायमें कहनेवाले हैं। अतः स्थितिका अधिक विस्तार पूर्वक कथन करनेसे पूरा पडो, बुद्धिमानोंके सन्मुख इंगित ( इशारा) मात्र पर्याप्त है । अधिक बढाकर भी यदि लिख दिया जाय फिर भी तो उससे कहीं अधिक लिखे जानेकी आकांक्षायें बनी रहती हैं । " श्रेयसि कस्तृप्यति "।
इह प्रपंचेन विचिंतनीयं शरीरिणोधोगतिभाजनस्य ।
खतत्त्वमाधारविशेषशिष्टं बुधैः स्वसंवेगविरक्तिसिध्द्यै ॥२॥
उपेन्द्रवज्रा छन्दःद्वारा श्री विद्यानन्द स्वामी तृतीय अध्यायके प्रथम आन्हिकको समाप्त करते हुये यहांतक कहे जा चुके प्रकरणका उपसंहार करते हैं कि विद्वान् पुरुषों करके अपने संवेगभाव और वैराग्यभावोंकी सिद्धिके लिये इन छह सूत्रोंमें अधोगतिके पात्र हो रहे वैक्रियिक शरीरधारी नारक जीवोंका आधार विशेषरूपसे सिखा दिया गया निजतत्त्व तो विशेषरूप करके विचार लेने योग्य है, अथवा नारकियोंका निकृष्ट आचार विशेषसे परिशेषमें भोगना पडा उनका निजतत्त्व विचारने योग्य है, जिससे कि बुद्धिमान् जीवोंको संसारसे भीरुता और वैराग्यकी प्राप्ति हो जाय । भावार्थ-नारकी जीवोंका वर्णन करना मुमुक्षु जीवोंके संवेग और वैराग्यका वर्धक है । दशलक्षणपर्वमें जिनवाणीकी पूजा करते समय तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय या सूत्रोंको अर्घ्य चढाया जाता है, इसका तात्पर्य यही है कि इन सूत्रोंके प्रमेयोंको अर्घ्य नहीं चढाते हैं । किन्तु इनके ज्ञानकी हम पूजा करते हैं, जिसके कि संवेग और वैराग्य परिणाम बढ़ें।
इति तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे तृतीयाध्यायस्य प्रथममान्हिकं समाप्तं । , यों शुभ भावनाओंको भावते हुये विवरण कर श्री विद्यानन्द स्वामीने तत्त्वार्थसूत्रके श्लोकवार्तिक अलंकाररूप व्याख्यानमें तृतीय अध्यायका पहिला प्रकरणोंका
समुदाय स्वरूप आन्हिक यहांतक समाप्त कर दिया है ।