Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
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कनकं हिरण्यं हेम हाटकम्, तपनीयं शातकुम्भं गाङ्गेयं भर्मकर्बुरम् । चामीकरं जातरूपं महारतकाञ्चने, रुक्मकार्तस्वरं जाम्बूनदमष्टापदोऽस्त्रियाम् " ये उन्नीस पर्यायवाची नाम सोनेके गिनाये हैं । फिर भी " जेत्तियमित्ता सदा तेत्तियमित्ता हु होंति परमत्था इस नियम अथवा एवम्भूत नयकी अपेक्षासे सुवर्णका नानापना अनिवार्य है । यद्यपि आजकल भी प्रातः, मध्यान्ह, सायंकाल, रात्रि के समय एक ही प्रकार के सुवर्णको देखनेपर परनिमित्तोंसे नाना कान्तियां प्रतीत हो जाती हैं । करकेटाके रंग समान सोना स्वयं भी कान्तियोंको बदलता रहता है । तथापि देखे जा रहे कई जातिकी चांदियां अनेक प्रकारके सुवर्ण नाना ढंगके हीरकमणियोंका प्रत्याख्यान नहीं किया जा सकता है। शुक्र विमान, सूर्यमण्डल, बृहस्पति, बुधग्रह, या अन्य ताराओं में मणियोंकी अनेक जातियां प्रत्यक्ष गोचर हैं । अतः इस विषयमें अधिक विस्तार करना व्यर्थ है । ये हिमवान्, महाहिमवान् आदिक पर्वत सुवर्ण आदिके बन रहे परिणाम हैं। क्योंकि तिस प्रकारके ही वे अनादि कालके स्वयं सिद्ध हो रहे हैं। यदि अन्य प्रकारोंसे इनका उपदेश किया जायगा जैसा कि भास्कराचार्य या अन्य पौराणिक विद्वानोंने स्वीकृत किया है, उस मिथ्योपदेशका इस परमागम करके प्रतिवात कर दिया जाता है । अतः सूत्रोक्त व्यवस्थाको निर्दोष समझ लीजियेगा ।
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पुनरपि किं विशिष्टास्त इत्याह ।
फिर भी वे पर्वत किन मनोहर पदार्थोंसे विशिष्ट हो रहे हैं, ऐसी प्रतिपित्सा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं ।
मणिविचित्रपार्वाः ॥ १३॥
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प्रभाव, कान्ति, शक्ति, आदि अनेक गुणोंसे युक्त होरहीं मणियों करके विचित्र हो रहे पार्श्वभागोंको धारनेवाले वे पर्वत हैं ।
मणिभिर्विचित्राणि पार्श्वाणि येषां ते तथा । अनेन तेषामनादिपरिणाममणिविचित्रपार्श्वत्वं प्रतिपादितं ।
जिन पर्वतों के पसवाडे भला मणियों करके चित्र, विचित्र, हो रहे वे पर्वत तिस प्रकार " मणिविचित्रपार्श्वाः " कहे जाते हैं । इस विशेषण द्वारा उन पर्वतोंका अनादि कालसे परिणाम होरहा यह मणियों करके विचित्र पसवाडोंसे सहितपना कह दिया गया समझ लिया जाता है ।
तद्विस्तरविशेषप्रतिपादनार्थमाह ।
उन पर्वतों के विशेष रूप से विस्तारको प्रतिपादन करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराज अगले कहते हैं ।
उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः ॥ १४ ॥