Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिक
नियत वस्तुओं की प्राप्तिका सिद्धान्त पुष्ट हो जाता है। विशेषज्ञ पुरुष इसको अनेक अन्य युक्तियों द्वारा भी समझ समझा सकते हैं। अनेक स्थलोंपर मेरे लेखोंमें पुनरुक्त दोष आ गया है। किन्तु मन्द बुद्धिवाले श्रोताओं को समझानेकी अपेक्षा वह दोष गणनीय नहीं है । प्रतिभाशाली विद्वानोंके लिये महर्षियोंके ग्रन्थों या स्वकीय ऊहापोह द्वारा विशेष सन्तोष प्राप्त हो सकेगा। कोई कोई बात तो मूल सूत्रमें
और वार्तिकमें तथा उस वार्तिकके विवरणमें यों तीन बार एवं इनकी देश भाषा कर देनेपर तीनों वार इस प्रकार स्वतः विना प्रयत्नके छह वार आ गई है । युक्तियों द्वारा मन्दबुद्धि शिष्योंको समझानेका उद्देश्य कर पुनरपि एकाध बार वही मन्तव्य पुनः पुनः पुनरुक्त हो जाता है तथा विशेष व्याख्यान करते करते क्वचित् जैनसिद्धान्त जैनन्याय और जैन व्याकरणसे भी मेरा प्रमादवश या अज्ञानवशस्खलन हो जाना सम्भव है। तथापि देशभाषा करनेमें बुद्धिपूर्वक कषाय ईर्षा, निह्नव, मिथ्याभिनिवेश, नहीं होनेसे स्वकीय संचेतना अनुसार कोई त्रुटि नहीं रक्खी गयी है । "सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः " इस वाक्यका केवल प्रथमा, द्वितीया, विभक्तिका अर्थ करते हुये कोई पण्डित यदि " धर्मके ईश्वर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रोंको धर्म जानते हैं।" इस प्रकार अर्थ कर देवे तो ऐसी दशामें त्रुटि नहीं रह सकती है, जैसे कि ग्रामीण फूअर स्त्री द्वारा पेट भरनेके लिये बनायी गयी केवल मोटी रोटीमें कोई त्रुटि नहीं निकाली जाती है। किन्तु नोंनके या मीठे कचौडी, सकलपारे, सेव, लड्डू, गूझा, घेवर, इमर्ती, गुलाबजामुन अथवा अनेक प्रकारकी तरकारियां आदि भोज्य पदार्थों में कई त्रुटियोंकी समालोचना की जाती है । सभी प्राणियोंको सन्तोषके छोटे बडे उपाय प्राप्त हो ही जाते हैं । मुझे भी नीरक्षीरकी विवेचक हो रही हंस प्रकृतिको धारनेवाले उदात्त, गम्भीर, सज्जन विद्वानोंसे सन्तोष प्राप्तिका सौभाग्य मिला हुआ है। समझा जायगा जब कि त्रुटियोंपर लक्ष्य नहीं देते हुये वे प्रमेयका सुधार कर अध्ययन करेंगे। “ विद्यते स न हि कश्चिदुपायः सर्वलोकपरितोषकरो यः । सर्वथा स्वहितमाचरणीयं किं करिष्यति जनो बहुजल्पः " यह किसी कविका वाक्य सर्वांगसुन्दर है। प्रकरणमें यही कहना है कि अनेक निमित्त कारण तो वर्षों में कार्योको करते हैं, कितने ही कारण महिनों, दिनों, घण्टोंमें ही कार्यको बना देते हैं । आकाशमें अदृश्य उपादान कारणोंसे झट मेघ, बिजली, बादल, बन जाते हैं, उपादान कारणके विना जगत्का कोई भी कार्य नहीं उपजता है । शब्द, बिजली आदिके भी उपादान कारण हैं । भले ही वे दीखें नहीं, यह हमारी निर्बलता है । कार्य कारण पद्धतिका कोई दोष नहीं है । अक्षीण महानस, ऋद्धिधारी मुनियों के लिये जिस पात्रसे भिक्षा दी जाती है, उस भाजनसे चक्रवर्तीकी सेना भी भोजन कर ले तो उस दिन उस पात्रका अन्न नहीं निवट पाता है । यहां भी लाखों मन अदृश्य उपादान कारण विद्यमान हैं । अंकुरके विना बीज और बीज विना अंकुर. नहीं उपजता है । विचारा भोगभूमि या स्वर्ग तो क्या मोक्षमे भी यदि अंकुर पाया जायगा तो उसका बाप बीज वहां प्रथमसे ही मानना पडेगा । हां, विलम्ब या शीघ्रताका अन्तर पड सकता है, कर्मभूमिके अपुण्यशाली