Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्त
नष्ट होती है । क्योंकि कारणके विना कार्य नहीं उत्पन्न होसकता है। हां, मनुष्यों की आयु अवगाहना आदिके समान वृक्षोंकी आयु या अवगाहना न्यून अधिक होती रहती है, जैसे कि भोगभूमियां मनुष्य तीन, दो, एक, कोस ऊंचे या हाथी छह, पांच, चार कोस ऊंचे अथवा वृक्ष तीस, बीस, दश कोस होते हैं, उसी प्रकार घटते, घटते हुये इस समय मनुष्य सांढे तीन हाथ, हाथी दस हाथ, वृक्ष बीस पचास, हाथ, ऊंचे रह गये हैं। हां, किसी पदार्थमें घटी, बढीका तारतम्य अधिक है और किसीमें न्यून है। गेंहू, चावलों, आदिके वृक्षोंमें उस त्रैराशिक के अनुसार हानि या वृद्धि नहीं होती है । थोडा अंतर अवश्य पड जाता है । चतुर्निकाय देवों के या अन्यत्र स्थानोंपर पार्थिव कल्पवृक्षोंके अतिरिक्त 1 वनस्पति कायिक कल्पवृक्ष भी पाये जाते हैं । अलम् विस्तरेण ।
विदेहेषु किंकाला मनुष्या इत्याह ।
कोई विद्यार्थी प्रश्न करता है कि विदेह क्षेत्रों में कितने आयुष्य कालको धारने वाले मनुष्य निवास करते हैं ? ऐसी विनीत शिष्यकी तत्त्वबुभुत्सा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रो कहते हैं ।
विदेहेषु संख्येयकालाः ॥ ३२ ॥ .
पांचों महाविदेहोंमें अथवा पांच मेरु सम्बन्धी एक सौ साठहू विदेहोंमें लौकिक गणना अनुसार संख्या करने योग्य आयुष्य कालतक जीवित रहने वाले मनुष्य निवास करते हैं ।
संख्येयः कालो येषां ते संख्येयकालाः संवत्सरादिगणनाविषयत्वात्तत्कालस्य ।
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जिन मनुष्योंका जीवन काल संख्या करने योग्य है, वे मनुष्य " संख्येयकाल " हैं । क्योंकि वर्षं, दिन, मास, आदि करके गिनी गयी गणनाका विषय हो रहा वह काल है । भावार्थ - विदेह 1 क्षेत्रोंमें सर्वदा अवसर्पिणीके तीसरे काल सुषमदुःषमा के अन्त समान काळ व्यवस्थित रहता है | मनुष्यों के शरीर पांच सौ धनुष ऊंचे हैं । नित्य एक बार भोजन करते हैं । जघन्य रूपसे मनुष्योंकी आयुः अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट रूपसे वे एक कोटि पूर्व वर्षतक जीवित रहते हैं। चौरासी लाख वर्षका एक पूर्वाङ्ग होता है और चौरासी लाख पूर्वाङ्गों का एक पूर्व होता है । ऐसे करोड पूर्वतक विदेह क्षेत्रवासी मनुष्य जीवते हैं। हाथी, घोडे, भैंसा, बैल आदिकी आयुओं को इसी प्रकार समझ लेना चाहिये । विदेह क्षेत्र में द्रव्य रूपसे जैन धर्मका विनाश नहीं होता है । सदा जैन धर्मकी प्रवृत्ति बनी रहती है । भावोंमें भले ही मिथ्यात्व हो जाय ।
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अथ प्रकारांतरेण भरतविष्कंभप्रतिपत्त्यर्थमाह ।
अब श्री उमास्वामी महाराज दूसरे प्रकारसे भरत क्षेत्रकी चौडाईको प्रतिपादन करनेके लिये अग्रिम सूत्रको कह रहे हैं ।