Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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मर्यादारहित हो रहा अनन्त है जैसे कि आकाश ( व्यतिरेक दृष्टान्त ) । पृथिवी तो विशेष संस्थानवाली हो रही सान्त ही है ।
धरः पर्वतः संस्थानवान् सपर्यन्तो दृष्टो यः पुनरपर्यंतः स न संस्थानवान् यथाकाशादिरिति विपक्षाद्यावृत्तो हेतुः पर्यंतवत्तां धरायाः साधयत्येव ।
धर यानी पर्वत ( पक्ष ) विशेष रचना या आकारवाला है ( साध्य ) अतः मर्यादा युक्त लम्बाई, चौडाई, मोटाई, को ले रहा पर्यन्तसहित देखा गया ( हेतु ) जो जो संस्थानवान्ं है, वह समर्याद है, जैसे घट ( अन्वयदृष्टान्त ) । और जो पदार्थ फिर अनन्त है वह परिमित संस्थानवाला नहीं है, जैसे कि आकाश, दिशा, आदि हैं ( व्यतिरेकदृष्टान्त ) इस प्रकार विपक्षसे व्यावृत्त हो रहा संस्थानविशेष सद्धेतु फिर पृथिवी के मर्यादासहितपनको साध देता है
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यत्पुनरभ्यधायि-विवादापन्ना धरा धराधारा धरात्वात्प्रसिद्धधरावदिति । तदयुक्तं, हेतोरादित्यधरादिनानेकांतात् न हि तस्याधरांतराधारत्वं सिद्धमंतरालाधानप्रसंगात् । ततः पर्यतवत्यो भूमय इति निरारेकं प्रतिपत्तव्यं ।
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जो फिर तुमने यो पहिले अनुमान द्वारा कहा था कि विवादमें पडी हुई भूमि ( पक्ष ) दूसरी पृथिवी के आधारपर है ( साध्य ) पृथिवी होनेसे ( हेतु ) प्रसिद्ध धरा के समान ( अन्यदृष्टान्त ) वह कथन अयुक्त है । क्योंकि तुम्हारे हेतुका सूर्य की पृथिवी या चंद्रकी पृथिवी आदि करके व्यभिचार हो जाता है। देखो, उन सूर्य, चन्द्रमा की पृथिवियोंका पुनः अन्य पृथ्वियों के आधारपर स्थित रहना सिद्ध नहीं है । अन्यथा अन्तराल के अभावका प्रसंग हो जायगा । अर्थात् — बडे योजन अनुसार अडतालीस वटे इकसठ या छप्पन वटे इकसट योजन लम्बा चौडा और इससे आधा मोटा जो सूर्य विमान या चन्द्र विमान है अथवा जितना भी कुछ मोटा सूर्य विमान या चन्द्र विमान तुमने माना है उतनी मोटी पृथिवी के नीचे यदि दूसरी पृथिवी और दूसरीके नीचे तीसरी, चौथी, आदि पृथिवियां यदि मानी जायगीं तो यहां इस भूमितलसे सूर्य और चन्द्रमातक जो अन्तराल दीख रहा है, अनेक आधारभूत अन्य पृथ्वियों के नीचे नीचे भर जानेपर वह व्यवधान नहीं रह पायगा । किन्तु हमको यहांसे सूर्यतकका पृथ्वियोंसे रीता हो रहा व्यवधान दीख रहा है । अतः पृथ्वियों के आधारभूत पुनः अनेक पृथ्वियोंकी कल्पना करना अयुक्त है । तिस कारण से सम्पूर्ण भूमियां छहों दिशामें परिमित मर्यादाको ले रहीं अन्तवाली हैं । इस जैनसिद्धान्तको संशयरहित समझ लेना चाहिये ।
ननु चाधोधः सप्तसु भूमिषु जीवस्य गतिवैचित्र्यं विरुद्धं ततो अमूभ्यः शून्याभिस्तःभिर्भवितव्यं । तथा च तत्कल्पनावैयर्थ्य जीवाधिकरणविशेष प्ररूपणार्या हि तत्पारकल्पन' श्रेयसी नान्यथेति वदंतं प्रत्याह ।