Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
RWAAAAAAAL.
-
सामर्थ्यका उपयोग होता कहां समा जायगा ! आसु छिन नहीं होनेवाले जीवोंके लिये ये सब प्रयोग व्यर्थ हैं। आयुर्वेद या चिकित्सा करना सिापहारक मंत्र ये कोई आयुष्यकर्मको बढा नहीं देते हैं । हां, अपमृत्युके जुटे हुये कारणोंका विध्वंस कर देते हैं । भुज्यमान आयुष्यसे एक समय अधिक भी जीवित रख लेना इन्द्र, अहमिंद्र, ग्रह, योगिनी, क्षेत्रपाल, मंत्र, तंत्रके बूते अशक्यानुष्ठान है । हां, प्रतिबन्धकोंकी शक्तिका नाश करनेमें जो औषधि आदि समर्थ कारण हैं, वे मध्यमें अपकर्षण या उदीरणाको प्राप्त हो रहे आयुष्यकर्मके निषेकोंकी अवस्थाका बस कर उतने ही पूरे नियत समयोंमें अन्य आने योग्य कर देते हैं । आयुर्वेद के प्रमाणपन अनुसार या मंत्रः आदि शास्त्रोंके यथार्थपन अनुसार मध्यमें मरता हुआ जीत्र यदि बचा लिया जाय, ये क्या थोडी सामर्थ्य है ? पूर्वजन्ममें बांधी बुई आयको मध्यों ही तोड सकलोवाले प्रतिबन्धक रोगोंका समुचित चिकित्सा प्रक्रिया द्वारा निराकरण साया जाकर पूर्ण आयुको भोगने के लिये जिन शास्त्रोंसे ज्ञान सम्पादन किया जाता है, वे आयुर्वेद शान हैं। न्याय प्रय, व्याकरणविषयक ग्रन्थ, सिद्धान्तशाल, ज्योतिषशासके समान आयुर्वेद भी एक आवश्यक वक विषयके ग्रन्थोंका समुदाय है, कोई ऋग्वेद, यजुर्वेद के समान एक नियत ग्रन्थ ही आयुर्वेद नहीं है। यदि कोई यहां यों कहे कि दुःखका प्रतीकार हो जाना, कुछ कुछ सुख मिल जामा, चलने फिरने लग जाना, आदिक कार्योंमें ही चिकित्साशास्त्र या वैद्योंके पुरुषार्थकी समकालता हो जाती है । अर्थात्-वातमाधि या कुछ, जलोदर आदि रोगों की चिकित्सा केवल इस लिये की जाती है कि रोगीका दुःख, कम हो जाय, उसको कुछ कुछ चैन पडने लग जाय, कुछ चल, शि स्के, खा, फीके, थोड़ी नींद ले लेवे, रोगका उपशम हो जाय, बस, इसीलिये रोगीकी चिकित्सा की जाती हैं । उसका मरना तो आयुके पूर्ण होनेपर ही होया, और तब आयु पूरी हो जानोगर महान् सवैद्य, बड़े बड़े करक, सुश्रुत, वाग्भट्ट, या मंत्र तंत्र शाखाके प्रन्थ व्यर्थ धरे रहेंगे । जीबस एक घिपल ( एक किन्डका ढपाईमा भाग ) भी कह नहीं सकता है। यों कहनेपर तो आचार्य करते हैं कि जिस प्रकार असाला केछनीयक उदयसे प्राप्त हुये दुःस्तके प्रतीकार आदिमें शास्त्र, वैद्य, गामाजिक, सांक आदिकी सामर्थ्य होना माना जा रहा है, उसी प्रकार अपमृत्युका प्रतीकार आयुष्य कर्मकी उदीस्णा नहीं होने देने आदि कार्योंमें भी उनका उपयोम माना जाओ । जो कारण दुःखका प्रतीकार कर सकते हैं यानी दुःख देनेवाले पापोदयको टाल सकते हैं वे अपमृत्युको भी हटा सकते है। उनकी उस सामर्थ्यका उपयोग होना दोनों प्रकारसे देखा जाता है । दुःखोंके प्रतीकार हो जाते हैं। अपायुका विनाश भी साथमें हो जाता है । चतुर वैद्य किसी रोगमें कुछ दिनोंके लिये दुःखको अधिक बढाकर भी रोगीकी अपमृत्युका क्मिाश कर देता है। गले सडे अंगको शस्त्रचिकित्सा सारा काठ कर रोगीको अपमृत्युसे बचा लिया जाता है, सन्निपात रोगले ज्वर रोगमें लाकर पुनः ज्वारका विनाश करता हुआ वैव उस सेशिको मध्य मृत्युसे रक्षित कर लेता है । सतानेघाले व्यक्त रोग और वर्तमान में नहीं दुःस्त्र दे रहे रोगोंकी चिकित्सा होना दोनों प्रकारसे देखा जाता है।