Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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बना ली जाती हैं । बंधे हुये वे कर्म पुनः नियत समय अनुसार उदयावलीमें प्राप्त होकर आत्माको सुखदुःख देना, स्थूल शरीरमें रोके रहना, आदि फल देते हैं, उसी प्रकार आत्मपुरुषार्थ या अन्य नियत कारणों द्वारा उन कर्मोकी उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा, उपशम, निधत्ति, निकाचना, आदि अवस्थायें भी की जा सकती हैं । हां, भुज्यमान आयुको वढानेके लिये या ज्ञानावरणका उपशम करनेके लिये अथवा नामकर्मका क्षयोपशम करनेके लिये आत्मा यदि ऐसे अशक्यानुष्ठान कार्योका प्रयत्न करेगा तो उसका परिश्रम या कारणोंका व्यापार पहाडसे माथा टकरानेके समान सर्वथा व्यर्थ पडेगा । किन्तु उचित कालसे पूर्वकालमें ही आयुःकर्मकी उदीरणा या अपकर्षण करनेवाले अथवा उस आयुष्यको मध्यमें ही विच्छेद करनेके लिये मुख फाडे बैठे हुये कारणोंकी सामर्थ्यको नष्ट कर देनेवाले कारणोंका व्यापार व्यर्थ नहीं जाता है । आयुको मध्यमें छेद करनेवाला विष, शस्त्रघात, आदि कारण पूर्ण समर्थ होता हुआ यदि प्रतीकारक मंत्र, औषधि, आदिकी शक्तियोंका भी ध्वंस कर देगा तो आयुका हास अवश्यम्भावी है । किन्तु आयुःके मध्यमें छेदनेवाले कारणोंकी शक्तिका चिकित्सा आदि समर्थ कारणों द्वारा विनाश कर दिया गया है तो “ अनी टल जानेपर हजार वर्षकी आयु " इस प्रामीण किम्वदन्ती अनुसार दीर्घ जीवन बना बनाया ही है। बात यह है कि चिकित्सा प्रणाली द्वारा अपमृत्युका प्रतीकार किया जा सकता है, जैसे कि सुखके या दुःखनिवृत्तिके कारण मिला देनेपर असद्वेद्य, अरति, शोक, आदि कर्मोके उदय निमित्त परिणामोंका प्रतीकार कर दिया जाता है । जो खाया हुआ पदार्थ प्रमाद दशा होनेपर छह घण्टेमें पच पाता वह व्यायाम या सानन्द वायु सेवनार्थ स्वछन्द गमनरूप पुरुषार्थ द्वारा तीन घंटेमें ही पचा लिया जाता है।
सत्यप्यायुषि जीवनस्याभावप्रसक्तौ कृतप्रणाशः स्यात् इति चेत्, तर्हि सत्यप्यसद्वद्योदये दुःखस्योपशमने कथं कृतप्रणाशो न भवेत् ?
जैनोंके ऊपर कोई आक्षेप करता है कि दीर्घ कालतक जीवित रखनेके उपयोगी आयुःकर्मका सत्त्व होते हुये भी यदि मध्यमें ही जीवित रहनेके अभावका प्रसंग मिल जाना माना जायगा तब तो कृतका विनाश होजाना, यह बडा भारी दोष आता है। यानी "जो करता है वह अवश्य भरता है" "न कर तो कुछ भी नहीं डर" ऐसी लोकप्रसिद्धियां हैं । किये हुवे कर्मीका यदि फल दिये विना ही बढिया माश होजाय तब तो दान, पूजा, अध्ययन, अध्यापन, सभी शुभकर्म व्यर्थ पडेंगे । हिंसक, व्यभिचारी जीव भी दयावान् ब्रह्मचारी पुरुषोंकी पंक्तिमें साथ बैठ जायंगे, यों कहने पर तो आचार्य कहते हैं कि तब तो असद्वेदनीय कर्मका उदय होनेपर भी यदि चिकित्सा आदि द्वारा दुःखका उपशम होना माना जायगा तो तुम्हारे ऊपर भी कृतका नाश हो जाना दोष किस प्रकार नहीं बन बैठेगा ? बताओ। भावार्थ-सुम जो समाधान उस दुःखके उपशम हो जानेमें करते हो वही समाधि इस अपमृत्युमें भी कर लेना । यदि किसी जीवने पहिले पुण्यका उपार्जन किया पश्चात् तीव्र पाप कर लिया ऐसी दशामें पुण्यकर्मका पापकर्म रूपसे संक्रमण होजाने पर कोई कृतप्रणाश नहीं है । सर्पके मुखमें पडे हुये