Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ लोकवाि
अर्थ घटित हो जानेसे अर्थभेद की सिद्धि हो जाती है, उस प्रकार रूढि शब्दों करके वाच्यार्थीका भेद नहीं पाता है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि सूत्र केवल प्रतिपत्तिःकरानेका उपाय है व्याख्यान कर देनेसे या समुदाय शक्ति द्वारा उन रूढि शब्दों को भी पदार्थोंके मेदका ज्ञापकपना बन जाता है । इधर उधरसे अन्य पदार्थोंका उपस्कार कर लघुसूत्र द्वारा भी महान् अर्थकी प्रतिपत्ति हो जाती है 1
भूमिग्रहणमधिकरणविशेषप्रतिपत्त्यर्थे, घनादिग्रहणं तदालंबमनिर्ज्ञानार्थ, सप्तग्रहणमियसावधारणायें । सामीप्याभावादधोऽय इति द्वित्वानुपपत्तिरिति चेन्न, अंतरस्याविवक्षितत्वात् । इस सूत्र में भूमिका ग्रहण तो अधिकरण विशेषकी प्रतिपत्ति के लिये है । अर्थात् — जैसे स्वर्ग1 पटल भूमिका आश्रय नहीं करके जहांके तहां व्यवस्थित हो रहे हैं, उस प्रकार नारकी जीवोंके स्थान नहीं हैं, नारकियों के आवास तो भूमिका आश्रय लेकर ही प्रतिष्ठित हैं । इस सूत्र में घनाम्बु आदिका प्रहण तो उन भूमियों के आलम्बनका परिज्ञान कराने के लिये ' है । अर्थात् – स्वाश्रय 'होते हुये भी पक्षी जैसे वायुके सहारे आकाशमें उड़ रहा है, उसी प्रकार ये सभी भूमियां घनोदधि नामके वातवलपर आश्रय पारही हैं और घनोदधि वातवलय तो घनत्रातपर डट रहा है तथा तनुवातपर धनवात या अम्बुवात अवलम्बित है | सूत्रमें सप्त शद्वका ग्रहण तो भूमियों की संख्या के इतने नियत परिमाण होनेका अवधारण करनेके लिये है जिससे कि अधोलोककी सात ही भूमियां समझी जांय छह या आठ नहीं । यहां किसीकी शंका है कि तिरछी हो रही रचनाकी निवृत्तिके लिये सूत्रमें 'अध:का वचन आवश्यक है, किन्तु भूमियोंमें जब असंख्याते योजनोंका मध्यमें अन्तर पडा हुआ है, ऐसी दशामें समीपपन नहीं घटित होनेसे " अधः अधः इस प्रकार अधः शब्द के दो पनेकी सिद्धि नहीं हो पाती है। हां, वातवलयोंमें अन्तर नहीं होने से " अधः अधः शद अच्छा घटित हो जाता है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि मध्यमें पडे हुये अन्तरकी यहां विवक्षा नहीं की गयी है । सजातीय पदार्थ करके व्यवधान होता तो शंकाकारका कहना ठीक था । आकाशकां अन्तर अंगण्य समझा गया है। यहां विशेष यह कहना है कि पहिले धनवातका दूसरा नाम घनोदधिवात है । दूसरे अम्बुवातका अपर नाम घनवात भी है । ये सब चेतन या अचेतन वायु 1 हैं। यहां या सचेतन जल नहीं है। कोरा नाम घर दिया गया है । पहिली नोंद नामक वायु उदधि शब्द द्वारा मोटे जल या भापकी अभिव्यक्ति हो जाती है ।
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कुतः पुनरेताः संभाव्यंत इत्याह ।
किसीका प्रश्न है कि महाराज फिर यह बताओ कि वे भूमियां भला किसी प्रमाणसे ज्ञात होकर सद्भावको प्राप्त हो आचार्य महाराज वार्त्तिक द्वारा समाधान वचन कहते हैं ।
नीचे नीचे व्यवस्थित हो रहीं सात रहीं हैं ?
ऐसी जिज्ञासा होनेपर - श्री