Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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मिणिः
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आदि फल भी मध्यकालमें शीघ्र पच्चा लिया जाता है, उसी प्रकार लब्ध्यपर्यातक जीव या कर्म भूमि बहुत मनुष्य तियचौकी आयु मध्यमें ही हासको प्राप्त होजाती है ।
क्रुतः पुनरनपवर्त्यमाथुरौपपादिकादीनामित्याह ।
कोई निशा कटाक्ष करता है कि फिर किस प्रमाणसे आप उक्त सिद्धान्तको साधते हैं कि औपपादिक आदिकोंकी आयु बाह्य कारणोंसे हासको प्राप्त नहीं हो पाती है ? जितने कालमें भोगने योम्प आयु म्होंने पूर्व जन्ममें बांधी थी उतने कालके एक समय पहिले भी वे मरते नहीं हैं । चाहे कितने ही वयात, अवर्षण, आदि उत्पातोंका प्रकरण प्राप्त होजाय, किन्तु ये परिपूर्ण आयुको मोकर ही अन्य गतियोंको प्राप्त होते हैं । बताइयेगा, ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी उतरत वार्तिकको कहते हैं ।
अत्रोपपादिकादीनां नापवर्त्यं कदाचन । स्कोपाचमायुरीदृक्षादृष्टसामर्थ्य संगतेः ॥ १ ॥ सामतस्ततोन्येषामपवर्त्य विषादिभिः ।
सिद्धं चिकित्सितादीनामन्यथा निष्फलत्वतः ॥ २ ॥
यहां प्रकरण में औपपादिक आदि जीवों की निज पुरुषार्थ द्वारा पूर्वजन्म में उपार्जन की गयी आयु (पक्ष) विष, शस्त्र, आदि बाह्य कारणों द्वारा कदाचित् भी हासको प्राप्त नहीं होती है ( साध्य ) । क्योंकि इस प्रकार आयुको छिन्न नहीं होने देनेवाले पुण्य, पाप, स्वरूप अदृष्टकी सामर्थ्यं उन जीवोंको भले प्रकार 'प्राप्त हो रही है ( हेतु ) । अर्थात् - नारकी अकालमें ही मरना चाहते हैं । किन्तु उन्होंने पूर्वजन्ममें ऐसा पापकर्म कमाया है, जिससे कि वे दुःखाकीर्ण पूरी आयुको भोग करके ही मरते हैं। लौकान्तिक देव या अन्यसर्वार्थसिद्धि के देव आदिक तो शीघ्र ही मनुष्य जन्म लेकर संयमक्ते साधना चाहते । किन्तु पहिले जन्म में उपार्जे गये बहुतकालमें लौकिक सुख भुगतान योग्य 'अखण्डपुण्यकी सामर्थ्य ये बीच में नहीं मर सकते हैं । तथा बहुतसे इन्द्रियलोलुपी देव बिचारे आयुष्यत भी अधिक कातक जीवित रहना चाहते हैं । किन्तु भरपूर आयुको भोग चुकने पर उनका 'मरण अवश्यंभावी है । भुज्यमान आयुका उत्कर्षण करण नहीं हो सकता है । परिपूर्ण आयुक्त भोगने के लिये श्री तीर्थकर महाराज केवलज्ञान हो जानेपर भी कुछ मुहूर्ती अधिक हो रहे आठ वर्ष कमी कोटिपूर्व वर्षतक अधिकसे अधिक संसार में टिके रहते हैं । जीवन्मुक्त अल्मिीका 'संसार में ठहरना एक प्रकारका बन्धन है चार अघातिया कर्मोंके वशमें पडे रहना परम सिद्धिका अगल है। फिर भी आयुका म्हास नहीं होने से वे मध्यमें ही झटिति सिद्धालय के अतिथि
।