Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ लोकवार्तिक
कथन करना चाहिये । यदि सूत्रकारकी त्रुटि हो गयी है तो वार्तिककारको उपसंख्यान द्वारा वह त्रुटि पूरी कर देनी चाहिये, यहांतक कोई कह रहे हैं, उनके प्रति श्री विद्यानन्द स्वामी वार्तिक द्वारा समाधान वचन कहते हैं ।
पार्थिवादिशरीराणि येतो भिन्नानि मेनिरे । प्रतीतेरपलापेन मन्यतां ते खवारिजम् ॥ ९ ॥
जो वैशेषिक पण्डित इस औदारिक शरीरसे भिन्न पार्थिव शरीर, जलीय शरीर बैठे हैं, प्रतीतिका अपलाप करके चाहे जिस अन्ट, सन्ट, पदार्थको मान लेनेवाले वे आकाशकमलको भी मान लेवें, इसमें क्या आश्चर्य है ।
आदिको मात वैशेषिक यो
न हि पृथिव्यादीनि द्रव्याणि भिन्नजातीयानि संति तेषां पुलासयत्वेन प्रतीतेः परस्परपरिणामदर्शनाद्भिन्नजातीयत्वे तदयोगात् । न ह्याकाशं पृथिवीरूपतया परिणमते कालादिर्वा । परिणमते च जलं मुक्ताफलादि पृथिवीरूपतया । ततो न तज्ज्ञात्यंतरं युक्तं येन पार्थिवादिशरीराणि संभाव्यंते ।
पृथिवी, जल, आदिक द्रव्य कोई भिन्न जातिवाले न्यारे न्यारे तत्त्व नहीं हैं। क्योंकि उन पृथिवी, जल, आदिकोंक्री पुद्गलके पर्यायपने करके प्रतीति हो रही है, परस्परमें एक दूसरे की पर्याय हो जाना देखा जाता है । यदि पृथिवी, जल, आदिक द्रव्यों को भिन्न भिन्न जातिवाला तत्त्वान्तर माना जावेगा तो उस परस्पर परिणाम होने का योग नहीं बन सकेगा। तुम वैशेषिकों के यहां भी पृथिवी स्वरूप करके आकाश द्रव्य नहीं परिणमता है अथवा काल, आत्मा, आदिक द्रव्य भी पृथिवी या जल नहीं बन जाते हैं । अतः ये भिन्न जातिवाले द्रव्यान्तर हैं । किन्तु सीपके मुखमें पडा हुआ जल कुछ काल में मोती हो जाता है, मेघजल ही अनेक वनस्पतियां बन जाता है, जलके लकड़ी, पाषाण आदि परिणाम हो जाते हैं, जो कि कठिन होनेसे आपके मतमें पृथिवी पदार्थ माने गये हैं । आकाशमें, विशेष वायुयें जल होकर बरस जाती हैं 1 अमिकी भस्म पृथिवी हो जाती है। कपड़ा, लकड़ी, आदिक पार्थिव पदार्थ जलकर अग्नि होजाते हैं। दीपकसे काजल बन जाता है। इस ढंग से परस्पर में पृथिवी, जल, तेज, वायुओंका परिणामपरिणामी भाव देखा जाता है । तिस कारणसे उन पृथिवी, जल आदिकों को न्यारी न्यारी जातिवाला कहना उचित नहीं है, जिससे कि पार्थिव शरीर या जलीय शरीर, आदिक न्यारे शरीरोंके सद्भावकी संभावना की जा सके ।
संत्यपि तानि नैतेभ्यः शरीरेभ्यो भिन्नानि प्रतीतेर्विषयभावमनुभवंति ज्यावित् मार्थिवं हि शरीरं यदिंद्रलोके यच्च तैजसमादित्यलोके यदाप्यं वरुणलोके यच वायव्यं वायुलोके वेदितव्यं, तद्वैक्रियिकमेव देवनारकाणामौपपादिकस्य शरीरस्य वैक्रियिकत्वात् । यच्च चातुर्भू