Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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कार्यचिन्तामणिः
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णासे स्वकीय पुरुषार्थ द्वारा देव नारकियों करके बना लिया गया वैक्कियिक शरीर ही यथार्थ रूप से वैकि शरीर है, फिर भी " बादरतेऊबाऊपंचिदियपुण्णगा विगुव्वंति, ओरालियं सरीरं विगुव्वणुपं हवे जेसिं " 'इस गाथा अनुसार कतिपय तैजस कायिक, वायुकायिक या कोई कोई पंचेन्द्रिय तिर्यच अथवा भोगभूमियां, चक्रवर्ती आदि मनुष्योंके जो पृथक् या अपृथक् विक्रियात्मक शरीर हैं वे भी वैक्रियिक शरीर माने जाते हैं । अतः तैजस, कार्मणसे युक्त हो रहे औदारिकके साथ वैक्रियिक शरीर के संभव जानेसे एक जीवके ये चार शरीर भी युगपत् सम्बद्ध हो रहे पाये जाते हैं ।
पंच त्वेकत्र युगपन्न संभवतीत्याह ।
पांचों शरीर तो एक जीवमें एक समय ( एकदम ) में नहीं संभवते हैं, इस बातको श्री विद्यानन्द स्वामी अग्निमवार्तिक द्वारा कह रहे हैं ।
तदादीनि शरीराणि भाज्यान्येकत्र देहिनि । सकृत्संत्याचतुभ्र्यो न पंचानां तत्र संभवः ॥ १॥
शरीरधारी एक आत्मामें एक समय में विकल्प प्राप्त हो रहे उन तैजस, कार्मण दो शरीरोंको आदि लेकर चार शरीरोंतक पाये जाते हैं । उस आत्मामें पांचों शरीरों के होने की एक बार में संभावना नहीं है । क्योंकि " वेगुव्वियआहारय किरिया ण समं पमत्तविरदम्हि " छटे गुणस्थानवर्ती मुनि के आहारक शरीरका सद्भाव हो जानेपर उसी समय वैक्कियिक शरीर नहीं उपज सकता है । वैक्रियिक और आहारकका विरोध है ।
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न हि वैयिकाहारकप्रोर्युगपत्संभवो यतः कचित्पंचापि स्युः । सहानवस्थान नामक विरोध होने से वैक्रियिक और आहारकका युगपत् सद्भाव नहीं पाया जाता है । जिससे कि किसी किसी आत्मामें पांचों भी शरीर सम्भव जाते । अर्थात् — तैजस और कार्मणका सदा सहचरभाव होनेसे एक आत्मामें एक समय केवल एक शरीर भी नहीं सम्भवता हैं, जैसा कि ज्ञानोंमें अकेला केवलज्ञान संभव गया था । तथा वैक्रियिक और आहारक ऋद्धिका विरोध पड रहा होने से पांचशरीर भी एक साथ नहीं पाये जाते हैं ।
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किं पुनरत्र शरीरं निरुपभोगं किं वा सोपभोगमित्याह ।
कोई प्रश्न उठाता है कि इन पांचों शरीरोंमें फिर कौनसा शरीर उपभोगरहित है ? अथवा कौनसा शरीर उपभोगसहित है ? अर्थात् - पंचेन्द्रिय जीव अपने औदारिक शरीरके रूप, स्पर्श, ताडन, अभिघात, आदिक्की जैसे इन्द्रियों द्वारा उपलब्धि कर लेता है, वैसे पौगलिक पांचों शरीरों के रूप, रस, या उन शरीरोंके अवयवों का संयोग अथवा विभाग हो जानेपर उपजे हुये शब्दका इन्द्रियों