Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
व्यभिचार दोष तदवस्थ रहा । अब अधिक प्रसंग बढानेसे कोई विशेष प्रयोजन नहीं निकलता है । तुम्हारे आक्षेपोंका मुख, पराङ्मुख, उत्तर हो चुका है । अब तुम्हारे बूते आत्माका गतिमान्पना सभी प्रकारोंसे निषेधा नहीं जा सकता है । क्रियाहेतु गुणके सम्बन्धसे आत्मा मतिमान् डेलके समान सिद्ध करा दिया जाता है, कोई प्रत्यूह नहीं रहा ।
१८४.
कथं पुनरशरीरस्यात्मनो गतिरित्याह ।
महाराज जी ! यह बताओ, कि शरीर सम्बन्धवाले आत्माकी गति तो प्रसिद्ध ही है । किन्तु मरकर शरिरहित हो गये आत्माकी गति फिर किस प्रकार होती है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं ।
अनुश्रेणि गतिः ॥ २६ ॥
लोकके बीचसे प्रारम्भ कर पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर, नीचे, छऊ दिशाओंमें बरफीके समान छह पैलवाली अखण्ड परमाणुसे नापे गये सम संख्यावाले प्रदेश इस अखण्ड लोकाकाशमें तदात्मक होकर जड रहे हैं। दोनों ओर समसंख्यावाले पदार्थोंका सबसे छोटा ठीक बीच दो होता है । चारों ओर सम संख्यामें फैल रहे पदार्थोंका बीच चार होता है तथा छऊ ओर सम संख्यावाले पदार्थोंका बीच आठ होता है । लोकके ठीक मध्य सुदर्शन मेरुकी जडमें स्थित हो रहे गोस्तन आकारवाले आठ प्रदेशोंसे छऊ ओर अखण्ड आकाशमें प्रदेशोंकी श्रेणियां गढ ली जाती हैं। 1 उस श्रेणी आनुपूर्व्य करके जीवोंकी अन्य भवोंका संक्रमण करनेपर मरणकालमें गति होती है ।
आकाशप्रदेशपंक्तिः श्रेणिः अनोरानुपूर्व्ये वृत्तिः श्रेणेरानुपूर्व्येणानुश्रेणि जीवस्य पुद्गलस्य च गतिरिति प्रतिपत्तव्यं । जीवाधिकारात्पुद्गलस्यासंप्रत्ययः इति चेन्न, पुनर्गति - ग्रहणात्तत्संप्रत्ययात् क्रियांतरनिवृत्यर्थमिह गतिग्रहणमिति चेन्न, अवस्थानाद्यसंभवात् क्रियांतरनिवृत्तिसिद्धेः । उत्तरसूत्रे जीवग्रहणाच्चेह शरीरपुद्गलस्य जीवस्यानुश्रेणिगतिः संप्रतीयते ।
लोक, अलोक, पूरे आकाशमें प्रदेशोंकी लम्बी पंक्ति बन रही श्रेणि कही जाती है । अनुअव्ययका अनुपूर्वपना अर्थ होनेपर श्रेणिपदकी अनु उपसर्गके साथ अव्ययीभाव समास वृत्ति हो जाती है। श्रेणिके आनुपूर्व्य करके जीव और पुद्गलकी श्रेणि अनुसार गति हो जाती है । यह समझ लेना चाहिये । कोई आक्षेप करता है कि यहां प्रकरणमें जीवद्रव्यका अधिकार होनेसे पुद्गलकी भी श्रेणि अनुसार गति होनेका समीचीनज्ञान नहीं हो सकता है। आचार्य कहते हैं यह तो न कहना । क्योंकि “ विग्रहगतौ कर्मयोगः " इस सूत्र गतिका अधिकार चला ही आरहा था । पुनः इस सूत्र में गति शब्दका ग्रहण किया है । इससे उस पुद्गलकी गतिका संप्रत्यय हो जाता है 1 अन्यथा यदि जीवकी ही श्रेणि अनुसार गति इष्ट होती तो पुनः गति शब्दका प्रयोग करना व्यर्थ