Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
तो बालक या अण्ड आदिकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है तथा शेष द्वीन्द्रिय या वृक्ष, आदिक जीव तीनों भेदवाले हैं । अर्थात्-किसीकी योनि सचित्त है, अन्य किसीकी योनि अचित्त है तथा अन्योंकी सचित्त, अचित्त है।
शीतोष्णयोनयो देवनारकाः, उष्णयोनिस्तेजस्कायिकः, इतरे त्रिप्रकाराः, देवनारकैकेंद्रियाः संवृतयोनयः, विकलेंद्रिया विवृतयोनयः, मिश्रयोनयो गर्भजाः तद्भेदाश्चशद्वसमुचिताः प्रत्यक्षज्ञानदृष्टाः, इतरेषामागमगम्याश्चतुरशीतिशतसहस्रसंख्याः। तदुक्तं-"णिचिदरधादुसत्तयतरुदसवियलिदिए दो दो अ । सुरणिरयतिरियचदुरो चोदस मणुए सदसहस्सा"।
देव और नारकियोंके योनि स्थान कुछ शीत प्रदेशवाले हैं और कुछ उष्ण प्रदेशवाले हैं। जैसे कि चौथे नरकतक उन स्थानोंमें उष्णता अधिक है और छठे, सातमें, नरकमें शीत वेदनावाले ही प्रदेश हैं। पांचमें नरकमें ऊपर दो लाख बिले उष्ण स्थान हैं, और नीचेके एक लाख बिलोंमें शीत अत्यधिक है, देवोंके योनिस्थानोंमें भी सुखकी उत्पादक कहीं शीत व्यवस्था है, और कचित् मनोहर उष्णता है। तेजस्कायिक जीवोंके योनिस्थान उष्ण हैं, दियासलाईके रगडते ही लौ उठनेपर झट उस उष्णस्थान में तेजस्कायिक जीव जन्म ले लेते हैं । इसी प्रकार लकडीके जलनेपर या तारमें बिजलीका प्रवाह बहकर चमक जानेपर उस उष्णस्थलमें अग्निकायके जीव उत्पन्न हो जाते हैं । अन्य शेष जीव कोई तो उष्ण प्रदेशोंमें उपजते हैं । इनसे भिन्न कोई शीत या शीतोष्ण स्थालोंमें जन्म धारते हैं । तथा देव, नारकी और एकेन्द्रिय इन जीवोंकी योनियां संवृत हैं । जन्मते समय इनके उत्पादस्थान गुप्त रहते हैं। हां, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इनके योनिस्थल स्फुट हैं । गोबर, मल, द्विदल, सडाफल, इनमें त्रसजीव उपज रहे शीघ्र प्रतीत हो जाते हैं । हां, गर्भज जीवोंकी उत्पादस्थान संवृत, विवृत, मिले हुये हैं । समुच्चय अर्थको कहनेवाले च शब्द करके उन नौ योनियोंके भेद प्रभेद संग्रहीत कर लिये जाते हैं । उन चौरासी लाख संख्यावाली योनियोंको विशदरूपसे केवलज्ञामियोंने प्रत्यक्षज्ञान द्वारा देख लिया है । हां, अन्य संज्ञी जीवों से किसी किसीको योनियोंके भेद, प्रभेदका ज्ञान आगमप्रमाणद्वारा परोक्षरूपसे हो जाता है । उन्हीं प्रभेदोंको सिद्धान्तग्रन्थोंमें यों कहा है कि वनस्पति कायके भेद हो रहे नित्यनिगोद और इतर गति निगोदवाले जीवोंकी सात सात लाख योनियां हैं, पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, जीवोंकी भी सात सात लाख योनियां हैं। वनस्पतिकायमें प्रत्येक जीवोंकी दस लाख योनियां हैं, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय जीवोंकी दो लाख योनियां हैं। देव और नारकियों तथा पंचेंद्रिय तिर्यचोंकी न्यारी न्यारी चार चार लाख योनियां हैं। मनुष्योंकी चौदह लाख योनियां हैं।
__अथैतेषां योनिभेदानां सद्भावे युक्तिमुपदर्शयति ।
इसके अनन्तर योनियोंके इन भेदोका सद्भाव साधनेमें श्रीविद्यानन्द आचार्य युक्तिको अप्रिमबार्तिकोंद्वारा दिखलाते हैं।