Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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अर्थात् — शुक्र और रक्तसे जीवका आद्य नोकर्म शरीर बनता है । उनके कुछ बचे हुये भाग लीची फलके छिलका समान अण्डेका उपरिम कठोर भाग बन जाता है । पश्चात् वह अन्य आहार्य पदार्थोंसे भी बनकर बढ़ता रहता है । उस अण्डे में उत्पन्न हुये जीव अण्डज कहे जाते हैं । किसी ढक्कनके विना ही परिपूर्ण अवयववाला होता हुआ योनिसे निकलते ही चलना फिरना, आदि क्रियाओंके करनेकी सामर्थ्य से युक्त हो रहा शरीरी पोत कहा जाता है । कोई कोई जरायुज और 1 अण्डज के समान पोतज शद्व झट मुंहसे निकाल बैठते हैं, उनका कथन अयुक्त है। क्योंकि और पोतजमें कोई अर्थका भेद नहीं है । यदि तुम यों कहो कि पोत तो शरीर है और उस पोत में उत्पन्न हुआ आत्मा पोतज है, यों अर्थका भेद बन गया । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि पोतजन्मधारी शरीर के अनुसार उस आत्माका भी पोत परिणति से परिणाम हो जाता है 1 अतः आत्मा भी पोत समझा जाता है, पोतज नहीं । जरायुज और अण्डज तथा पोत इस प्रकार इतरेतरयोग नामक द्वन्द्व समास करनेपर " जरायुजाण्डजपोता: " यह सूत्र उक्तपद सिद्ध हो जाता है। द्वंद्वे जरायुजग्रहणमादावभ्यर्हितत्वात् क्रियारंभशक्तियोगात् केषांचिन्महाप्रभावत्वान्मार्गफलाभिसंबंधाच्च। तदनंतरमंडजग्रहणं पोतेभ्यो ऽभ्यर्हितत्वात् । एतेषां गर्भ एच जम्मेति सूत्रार्थः । जरायुज, अण्डज, पोत, इन तीनों पदों को चाहे कैसे भी आगे पीछे बोलकर द्वन्द्व समास करने पर पूज्य होनेसे जरायुज शद्वका ग्रहण आदिमें प्रयुक्त हो जाता है। जरायुज जीवोंके पूज्य होने में ये तीन कारण हैं कि बढिया क्रियाओंके आरम्भ करनेकी शक्तिका योग जरायुज जीवोंमें है I अर्थात्- — उत्तम भाषा बोलना, अध्ययन करना, बडे बडे आविष्कार करना, अनेक ऋद्धियें प्राप्त करना, ये अद्भुत क्रियायें जरायुजमें हैं तथा जरायुजोंमें सभी तो नहीं किन्तु कोई कोई चक्रवर्ती, वासुदेव, रूद्र तपस्वी आदि जरायुज जीव महान् प्रभाववाले होते हैं। तीसरे सम्यग्दर्शन आदिक मोक्ष मार्ग फल ही रहे मोक्षसुखका परिपूर्ण सम्बन्ध जरायुजों के ही पाया जाता है । अन्य जीव मोक्षके साक्षात् अधिकारी नहीं हैं । उस जरायुजके अव्यवहित पीछे अण्डज जीवोंका ग्रहण है । क्योंकि पोत जीवोंसे अण्डज जीव अभ्यर्हित हैं । अण्डजोंमें तोता, मैना, आदिक तो अक्षरोंका उच्चारण
हैं। कंबूतर, हंस, आदिक जीव तो कदाचित् दूतक्त कार्य भी कर देते हैं । कतिपय पक्षी तो शत्रुके सद्भाव या ठीक प्रातःकाल समयको बता देना, आंधी की सूचना देना, आदि कर्म करनेमें कुशल समझे जाते हैं । इन तीन प्रकारके जीवों के गर्भ नामका ही जन्म होता है, यह इस सूत्र का अर्थ है ।
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उद्देशे च निर्देशो युक्त इति चेन्न, गौरवप्रसंगात् । शेषाणां संमूर्च्छनमिति लघुनोपायेन गर्भोपपादानंतरं वचनोपपत्तेः ।
कोई शंका करता है कि उद्देशके अनुसार ही निर्देश करना उचित था । जब कि जन्मोंमें ही सम्मूर्च्छन जन्म पहिले कहा गया है तो सन्मूर्छन जन्मवाले जीवोंका सूत्रकारको प्रथम निरूपण चारना