Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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पुरुषार्थ द्वारा जीवके औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, ये तीन शरीर बन जाते हैं । तैजस नामकर्मका अन्तरंग निमित्त पाकर तैजसवर्गणा जीवके अव्यक्त पुरुषार्थ द्वारा तैजस शरीररूप परिणत हो जाता है । तथा आत्मामें बंधे हुये पूर्वकाल संचित कार्मण शरीर नामक नामकर्मका उदय होनेपर जीवके अव्यक्त पुरुषार्थसे योगद्वारा गृहीत हुई कार्मण वर्गणायें हीं कार्मण शरीर बन बैठती हैं, यों औदारिक आदि शरीर नामकर्मविशेषों के उदय होनेपर आत्मलाभ कर चुके, औदारिक आदि पांच ही शरीर जीवके हैं। जिनकी कि उत्पत्ति हो जाना ही जीवका स्वकीय योनिमें जन्म कहा जा चुका है । केवल गतिनामकर्मका उदय ही जन्म नहीं है, अन्यथा यानी गतिनामकर्मके उदयको यदि जन्म मान लिया जायगा तो विग्रह गतिमें जिस जीवके नोकर्म शरीर उत्पन्न नहीं हुआ है, उसके भी जन्म होनेका प्रसंग हो जायगा । यद्यपि पूर्वशरीरको छोडते ही झट परभवकी आयुका उदय हो जाता है । विग्रहगतिमें जो एक दो या तीन समय लगते हैं, वे परभव सम्बन्धी गिनती के आयुष्य निषेकोंमें परिगणित हैं । फिर भी स्वयोनियोंमें नोकर्मशररिकी उत्पत्ति प्रारम्भ हो जानेपर जीवका जन्म माना गया है, गतिका उदय तो जन्म हो चुकनेपर मध्य अवस्थामें भी है । किन्तु जन्म और मरण के बीच में तो पुनः जन्म नहीं माने जाते हैं ।
तत्रोदारं स्थूलं प्रयोजनमस्येत्यौदारिकं उदारे भवमिति वा, विक्रिया प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकमाद्रियते तदित्याहारकं, तेजोनिमित्तत्वात्तैजसं, कर्मणामिदं कार्मणं तत्समूहो वा एतेषां द्वंद्वे, पूर्वमौदारिकस्य ग्रहणमतिस्थूलत्वात् उत्तरेषां क्रमवचनं सूक्ष्मक्रमप्रतिपत्त्यर्थे ।
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उन शरीरोंमें पहिले औदारिक शरीरकी व्युत्पत्ति यों करनी चाहिये कि उदार शब्दका अर्थ स्थूल है, जिस शरीरका प्रयोजन स्थूलपन है इस कारण वह औदारिक है अथवा उदार यानी स्थूल में जो उपजनेवाला है इस कारण वह औदारिक शरीर है । उदार शब्दसे प्रयोजन अर्थ अभवा भव अर्थ प्रत्यय कर औदारिक शब्द बना लेना चाहिये । छोटा बडा, लम्बा, नाना प्रकार शरीर कर लेना, विक्रिया है । जिस शरीर का प्रयोजन विक्रिया करना है इस कारण वह वैक्रियिक है । विक्रिया शब्दसे प्रयोजन अर्थमें ठञ प्रत्यय कर वैक्रियिक शब्दको साध लेना चाहिये । छटे गुणस्थान वर्त्ती मुनि करके तत्वमें सन्देह होनेपर निर्णय करनेके लिये जो शरीर आहार प्राप्त किया जाता है, इस कारण वह आहारक शरीर है । आङ्पूर्वक हृ धातुसे कर्ममें बुल् प्रत्यय करनेपर आहारक शब्द बन जाता है। शरीरमें तेज उपजानेका निमित्त होनेसे तैजस शरीर है, तथा कर्मोका बनाया हुआ यह ज्ञानावरणादि अष्ट कर्म समुदायरूप शरीर अथवा उन कर्मोंका समूह कर्मिण है। तेजस् शब्द और कर्मन् शब्दसे अण् प्रत्ययकर तैजस और कार्मण शब्दोंकी सिद्धि कर लेना चाहिये । इन औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मण, पदोंका इतरेतरयोगद्वन्द्वसमास करने पर सबके आदिमें औदारिकपदका ग्रहण हो जाता है। क्योंकि यह औदारिक शरीर अधिक स्थूल है । घोडा, बैल, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, मनुष्य आदिके स्थूल शरीरोंका बहिरंग इन्द्रियों द्वारा ग्रहण हो जाता