Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वाचिन्तामणिः
किन्हीं किन्हीं जीवोंका मोटा औदारिक शरीर तो प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्ध किया किन्तु शेष वैक्रियिक आदि शरीर भला किस प्रमाणसे सिद्ध हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्रीविद्यानन्द स्वामी वार्तिक द्वारा समाधानको कहते हैं।
संभाव्यानि ततोन्यानि बाधकामावनिर्णयात् । परमागमसिद्धानि युक्तितोपि च कार्मणं ॥ ३॥
उस स्थूल औदारिकसे भिन्न हो रहे सूक्ष्म औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर और कार्मण शरीर तो बाधक प्रमाणोंके अभावका निर्णय हो जानेसे संभावना करलेने योग्य हैं , अर्थात् अनुमान प्रमाणसे सिद्ध हैं, तथा वे शरीर आप्तोक्त परम आगमसे भी सिद्ध हैं, और कार्मणशरीर तो युक्तियोंसे भी सिद्ध हो जाता है।
___ ननु कर्मणामिदं कार्मणमित्यस्मिन् पक्षे सर्वमौदारिकादि कार्मणं प्रसक्तमिति चेत्र, प्रतिनियतकर्मनिमित्तत्वात् तेषां भेदोपपत्तेः । कर्मसामान्यकृतत्वादभेद इति चेन्न, एकमृदादिकारणपूर्वकस्यापि घटोदंचनादेर्भेददर्शनात् कार्मणप्रणालिकया च तनिष्पत्तिः स्वोपादामभेदानेदः प्रसिद्धः।
यहां किसीकी शंका है कि अतीन्द्रिय कर्मोके द्वारा बनाया गया यह कार्मण शरीर है, " तस्येदम् ” इस सूत्र करके तद्धितमें कर्मन् शबसे अण् प्रत्यय करनेपर " कार्मण” शब्द साध. जाता है। यों इस पक्षमें सभी औदारिक, वैक्रियिक, आदि शरीरोंको बडे अच्छे ढंगसे एकसा कार्मण शरीर बनजानेका प्रसंग प्राप्त हुआ । क्योंकि सभी शरीर पूर्वोपार्जित कर्मोंकी सामर्थ्यसे गढे गये हैं। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि प्रत्येकके लिये न्यारे न्यारे नियत हो रहे कर्मोको निमित्त मानकर उपजना होनेसे उन शरीरोंका भेद सिद्ध हो जाता है । भावार्थ-इस दृश्यमाण औदारिक शरीरका निमित्तभूत न्यारा अदृश्य औदारिक शरीर नामकर्म है और वैक्रियिकका निमित्त पृथक् ही वैक्रियिक शरीरकर्म है, आहारकका निमित्त आहारक शरीरकर्म है। तैजस शरीरका निर्मापक निमित्त अलग ही तैजसशरीर नामकर्म है और एकसौ अडतालीस प्रकृतियोंका पिण्ड हो रहे कार्मण शरीरका निमित्त तो एकसौ अड़तालीस-प्रकृतियोंमेंसे एक कार्मण शरीरनामक नामकर्म हैं। मूंजका पूरा मूंजसे ही बांधा जाता है । पुनः किसीकी शंका है कि सामान्यरूपसे कोद्वारा किये जा चुके होनेसे उन शरीरोंका परस्परमें अभेद हो जायगा । ग्रंथकार कहते हैं यह तो नहीं कहना क्योंक मट्टी, कुम्हार, चाक, डोरा, आदि एक कारणोंद्वारा पूर्ववर्ती होकर बनाये गये घडा, घडिया, दीवला, सकोरा, भोलुआ, आदिका भेद देखा जाता है। कारणोंकी विशेषताओंसे हो रहे न्यारे न्यारे कार्योको सामान्य कारण फिर अभेदकी ओर नहीं झुका सकता है । वस्तुतः भिन्न भिन्न कारणोंसे ही न्यारे न्यारे कार्य उपजते