Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्त
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दूसरी बात यह है कि यहां उपयोगका प्रकरण है। अतः बुद्धिको साधनेवालीं होनेसे पांच ही - ज्ञानेन्द्रियां हैं । तुमको भी बुद्धि इन्द्रियों के पांच प्रकारपनका निर्णय करना होगा वे पांच ही इन्द्रियां स्पर्श, आदि पांच विषयों के ज्ञानस्वरूप कार्यो को करती हैं । उसीको स्पष्ट कर यों कहा जाता है स्पर्श, रस, आदि के ज्ञान ( पक्ष ) करणसे साधे गये कार्य हैं ( साध्य ) क्रिया होने से ( हेतु ) इन्द्रियोंकी क्रियाके समान ( अन्ययदृष्टांत ) । कोई इस अनुमानमें दोष उठाता है कि ज्ञानकी स्वयं अपने आप संवित्ति हो जाती है । किसी अन्य करणकी आवश्यकता क्रियात्व हेतु तो रह गया, किन्तु करणसे साधन होना यह साध्य नहीं रहा ! अतः हेतुक व्यभिचारदोष हुआ । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि ज्ञान स्वयं को अपने आप जानता है। उस स्वसंवित्ति क्रिया की भी मनवाले जीवों के यहां अन्तरंग करण हो रहे मन इन्द्रिय को कारण मानकर उत्पत्ति हो रही है। हां, दूसरे मनरहित जीवों के अपनी शक्तिविशेषको करण मान कर ज्ञानका स्वयं सम्वेदन हो जाता है, अर्थात् - मनवाले जीवों के ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा आदि चेतनात्मक पदार्थों का ज्ञान तो नोइन्द्रियमनसे होता है और एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंतक ज्ञान, सुख, वेदना, इच्छा आदिका ज्ञान उस अन्तरंग विशेष क्षयोपशमरूप करणशक्तिसे उपज जाता है । वह करणशक्ति आत्मासे अभिन्न हो रही आत्माका ही परिणाम है। एक आत्मामें कर्तापनका और करणस्वरूप इन दो धर्मोके ठहरनेका विरोध नहीं है । क्योंकि प्रतीतियोंसे एकमें कई स्वभावों का स्थित रहना सिद्ध होचुका है । अनि अपने दाहपरिणाम करके ईंधनको जलाती है, दीपक अपनी प्रभासे प्रकाश रहा है, वृक्ष अपने बोझसे आप ही झुक गया है, यहां परिणाम और परिणामीकी भेदविवक्षासे कर्तापन और करणपन एक ही पदार्थमें ठहर जाता है । इस बात को हम पहिले प्रकरण में विस्तारपूर्वक कह चुके हैं । तिस कारणसे सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज करके यह सिद्धांत निवेदन कर दिया गया हो जाता है कि इन्द्रियोंके विशेषरूप करके सम्बन्धी पांच ज्ञानोंसे पांच इन्द्रियां जान ली जाती हैं तथा पूर्वापर सूत्रोंकी होनेसे अनिन्द्रिय कहा जानेवाला मन भी इन्द्रिय है । तिस कारण प्राप्त हो चुकीं पांच इन्द्रियोंकर के सम्बन्ध हो जाता है । दो सीप, शंख आदि दो इन्द्रिय जीव जान लिये जाते हैं । स्पर्शन, रसना, जुआं, खटमल आदि त्रीन्द्रिय जीव हैं । उक्त तीन इन्द्रियोंमें चक्षुको मिला देनेसे भोंरा, मक्खी, आदिक चतुरिन्द्रिय प्राणी हैं। त्वचा, जिह्वा, नाक, आंखें, कान, इन पांचों इन्द्रियों के सम्बन्धसे छोटी छोटी मेंडकी, मछली, आदि असंज्ञी पंचेंद्रियजीव हैं। पांचों वे और छटे मनको धार रहे घोड़ा, बैल, तोता, मैना, मनुष्य आदि संज्ञी पंचेंद्रिय जीव हैं । ऐसा युक्ति, आगम, अनुभव और प्रत्यक्ष प्रमाणसे निश्चय किया जा रहा है ।
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कार्य हो रहे स्पर्श आदि
घ्राण, तीन इन्द्रियों के योग से
तानि पुनरिंद्रियाणि पौगलिकान्येकविधान्येवेति कस्यचिदाकूतमपाकुर्वन्नाह ।
नहीं
है । यों स्वसंवित्ति क्रियामें
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सामर्थ्य से छठा अवस्थित जीवोंका इन व्यवस्थाको इन्द्रियोंका योग हो जाने से