Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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रखनेवाला होनेसे ( हेतु ) हम आदिकोंके ज्ञानसमान ( अन्वयदृष्टान्त ) | देखिये, योगाभ्याससे उत्पन्न हुये श्रुति, पुराण, प्रसिद्ध धर्मसे अनुग्रहीत हो रहे मनके साथ ईश्वर आत्माका संयोग हो जानेपर ईश्वरको सम्पूर्ण अर्थोंमें ज्ञान उपजा दिया जाता है । इस प्रकार ज्ञानको उत्पत्तिमान् साध देनेसे वह ज्ञान आदि, अन्तवाला हो जावेगा, यह नहीं समझ बैठना । हम बीजाङ्कुर न्याय अनुसार सन्तानरूपसे ईश्वरज्ञानको अनादि अनन्तपना उचित बताते हैं । कारण कि महेश्वरके योगकी सन्तान धाराप्रवाह अनादिकालसे अनन्तकालतक बह रही है । क्योंकि ईश्वर सदा ही राग, क्लेश, विपाकाशय, आदि मलों करके अछूता रहा है, अनादिकालसे शुद्धिका अधिष्ठान है । अतः यों उस योगसन्तानसे विशेष चमत्कारक धर्म उत्पन्न होता है और उस धर्मका अनुग्रह मनके ऊपर हो जाता है । पश्चात् उसी मनका ईश्वर आत्मा के साथ संयोग होता है । उस ईश्वर मनः संयोगको निमित्त पाकर अनादि, अनन्त, कालतक, ईश्वरके सम्पूर्ण अर्थोका ज्ञान होना बन जाता है। ईश्वर ज्ञानको अनित्य सिद्ध करने के लिये दूसरा तर्क यह भी है कि ईश्वरका ज्ञान अनित्य है ( प्रतिज्ञा) प्रमाणका फल होनेसे (हेतु) देखिये, कारणोंसे उत्पन्न हो रहे सभी फल अनित्य होते हैं । यदि उस ईश्वर ज्ञानको नित्य माना जायगा तब तो उसको प्रमा
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के फलपनका विरोध होगा। तीसरी बात यह भी है कि वह ईश्वरज्ञान विशेषगुण होनेसे अनित्य है जैसे कि आत्माके सुख आदि गुण ( अन्वयदृष्टांत ) । हमने आत्मामें संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग ये पांच सामान्य गुण और बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, भावना ये नौ विशेष गुण यों चौदह गुण माने हैं । ईश्वरमें भी पांच सामान्य गुण और ज्ञान, इच्छा, - प्रयत्न ये तीन विशेष गुण यों आठ गुण इष्ट किये हैं । आत्मा द्रव्यमे सभी विशेषगुण अनित्य हैं । " योपि " से प्रारंभ कर यहांतक वैशेषिक कह चुका । अब आचार्य कहते हैं कि उस वैशेषिक के यहां भी यों तो ईश्वरका ज्ञान ग्रहीतका ही ग्रहण करनेवाला प्राप्त हुआ और तिस कारणसे यानी गृहीतग्राही होने से वह ज्ञान विचारा स्मरण, धारावाहि ज्ञान आदिके समान प्रमाण नहीं हो सक्ता है । नैयायिक या वैशेषिकने गृहीत विषयको ही पुनरपि उतना ही विषय करनेवाले ज्ञानको प्रमाण नहीं माना है । फिर भी भक्तिवश यदि उस गृहीतग्राहक ज्ञानको प्रमाण मानोगे तब तो प्रमाणसंप्लववादी नैयायिक, वैशेषिक, जैन, मीमांसक, आदि विद्वानों के यहां अनुभव किये जा चुके विषय प्रवर्त रहे स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, आदि को भी प्रमाणपने का प्रसंग भला किसके द्वारा रोका जा सकेगा ? अर्थात् अर्थमें विशेष अंशोंको जाननेवाले अनेक प्रमाणोंकी प्रवृत्ति हो जानेको प्रमाणसम्प्लव कहते हैं । नैयायिक " प्रमाणसम्प्लव को इष्ट करते हैं । अतः कुछ अंश जाने जा चुकेका भी पुनः अन्य प्रमाणोंद्वारा सम्वेदन हो सकता है । ऐसी दशामें स्मरण आदिको भी प्रमाणता बन बैठेगी । कोई माईका to रोक नहीं सकता है ।
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स्मान्मतं, प्रमाणांतरेणाग्रहीतस्य सकलसूक्ष्माद्यर्थस्य महेश्वरज्ञानसंतानेन ग्रहणान्न तस्य ग्रहीतग्राहित्वमिति । तदसत् । धारावाहिज्ञानस्याप्येवं गृहीतग्राहित्वाभावात् प्रमाणतापत्तेः ।