Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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हो रहे जीवोंका वर्णन किया है तथा तीसरे “ संज्ञिनः समनस्काः इस सूत्र संज्ञी, असंज्ञी, जीवोंका पृथग्भाव श्री उमास्वामी महाराजने कह दिया है । एक एक सूत्रमें अपरिमित वयार्थ भरा पडा है ।
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यथा स्पर्शनस्य वनस्पत्यंताः स्वामिनः, कृम्यादयः तस्य रसनवृद्धस्य, पिपीलिकादयस्तयोर्थाणवृद्धयोः, भ्रमरादयस्तेषां चक्षुर्वृद्धानां मनुष्यादयस्तेषामपि श्रोत्रवृद्धानां तथा संज्ञिनो मनस इति प्रतिपत्तव्यं । ये तु मनसोऽस्वामिनः संसारिणस्ते न संज्ञिनः इति संज्ञयसंज्ञिविभागश्च परमार्थतो विहितः ।
तिस प्रकारकी पहिली स्पर्शन इन्द्रियके पृथिवीसे प्रारम्भ कर वनस्पतिपर्यंत जीव स्वामी हैं, और रसना इन्द्रियसे वृद्धिको प्राप्त हो रही उस स्पर्शन इन्द्रियके स्वामी लट, जौंक आदिक जीव हैं । तथा घ्राण इन्द्रियसे बढ रहीं उन स्पर्शन और रसना यों दो मिलकर तीन इन्द्रियों के स्वामी चींटी, खटमल, आदिक जीव हैं एवं चौथी चक्षुः इन्द्रियसे बढ चुक होकर उन स्पर्शन, रसना, घाण, इन्द्रियों के स्वामी भोंरा, मक्खी, पतंगा, आदि प्राणी हैं, तथैव पांचवी श्रोत्र इन्द्रियसे अधिक हो रहीं उन स्पर्शन, रसना, घ्राण, और चक्षुके स्वामी तो मनुष्य, घोडा, हाथी, आदि जीव हैं । तिस प्रकार ही संज्ञी जीव उन पांचोंके और मनके स्वामी हैं, यों समझ लेना चाहिये। यहां यथाके साथ तथाका अन्वय कर पंक्तिका अर्थ लगा देना । और जो जीव मनके स्वामी नहीं हैं वे संसारी जीव तो संज्ञी नहीं हैं । इस प्रकार वास्तविक रूपसे संज्ञी और असंज्ञी जीवोंके विभागका विधान इस सूत्रद्वारा किया जा चुका है । केवलज्ञानी जीवोंमें संज्ञीपन, असंज्ञीपनका भेद नहीं है । वे दोनों अवस्थाओंसे रहित हैं ।
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तदेवमान्हिकार्थमुपसंहरन्नाह ।
तिस कारण इस प्रकार प्रकरणों के समुदायभूत आन्हिकके अर्थका उपसंहार ( संकोच ) कर रहे श्री विद्यानन्द महाराज अग्रिम वार्तिकको वंशस्थ छंदद्वारा स्पष्ट कहते हैं ।
इति स्वतत्त्वादिविशेषरूपतो निवेदितं तु व्यवहारतो नयात् । तदेव सामान्यमवांतरोदितात्स्व संग्रहात्तद्वितयप्रमाणतः ॥ ७ ॥
द्वितीय अध्यायके आदिमें इस उक्त प्रकार जीवके निजतत्त्व, लक्षण भेद, इन्द्रिय, आदिका सामान्य रूपसे कथन कर पुनः व्यवहार नय करके विशेष रूपसे उन स्वतत्त्व आदिका इनं प्रकरणों में है। सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजद्वारा दार्शनिक और भव्यजीवों के सन्मुख निवेदन किया जा चुका वह सामान्य निरूपण ही व्याप्य विशेषको कहनेवाले स्वकीय, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, नयोंद्वारा विशेष रूपसे कह दिया जाता है तथा दोनों सामान्य विशेष आत्मक वस्तुको विषय करनेवाले प्रमाणसे सब कह दिया गया समझ लेना चाहिये । नय और प्रमाणों के विषय हो रहे धर्म, धर्मियों, करके जीवतच गुम्फित हो रहा है । प्रत्यक्ष परोक्षस्वरूप दोनों प्रमाणोंसे सम्पूर्ण विषय परिज्ञात होजाते हैं ।
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