Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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संग्रहनयद्वारा जानकर उसके भी व्याप्यको पुन व्यवहारनयसे जानो, जबतक ऋजुसूत्र नयका बिषय दृष्टिगोचर न होय तबतक संग्रह, व्यवहार नयोंकी परम्पराको बढाये जावो । जीव पदार्थका सम्पूर्ण निजतत्त्व तो सामान्य विशेषात्मक है, नयोंद्वारा कोई भी एक धर्म या धर्मी प्रधान विवक्षित हो जाता है । शेष अंश अप्रधान समझा जाता है। हां, प्रमाणद्वारा तो संपूर्ण सामान्यविशेष आत्मक स्वतत्त्व प्रधानरूपसे जान लिया गया ! सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज करके निवेदन कर दिया गया है । इस प्रकार सात सूत्रोंद्वारा जीवका स्वतत्त्व और दो सूत्रद्वारा जीवका लक्षण तथा पांच सूत्रोंद्वारा जीवके भेद एवं अग्रिम पांच सूत्रोंकरके जीवकी इन्द्रियां और मन भी तथा आगे के दो सूत्रों करके जीवकी छह इन्द्रियों के विषय तथैव तीन सूत्रों करके जीवकी छह इन्द्रियोंके स्वामी ये सब जान लिये जाते हैं। यहांतक द्वितीय अध्यायके चौवीस सूत्रोंका निरूप्य अर्थ बता दिया है । सामान्यरूप करके संग्रहनयसे उक्त विषय जाना जाता है और विशेष रूप करके व्यवहारनयसे उक्त स्वतत्त्व लक्षण आदिको जान लिया जाता है तथा सामान्य और विशेष दोनोंको प्रधानरूपसे विवक्षा प्राप्त करनेपर प्रमाणसे उक्त सिद्धान्त निर्णीत कर लिया जाता है ।
इति तत्त्वार्थ श्लोकवार्त्तिकालंकारे द्वितीयाध्यायस्य प्रथममान्हिकम् ।
यहांतक तत्त्वार्थसूत्र के अलंकारस्वरूप तत्त्वार्थं श्लोकवार्तिक ग्रन्थमें द्वितीय अध्यायका श्री विद्यानन्द स्वामी कृत पहिला आह्निक समाप्त हुआ । ॐ ह्रीं श्रीं द्वादशाङ्गप्रभृतिकमनघं मन्त्रमुच्चारयन्तः । शुक्लध्यानात्मिकां यां मतिमवधिमनः पर्ययौ चावहेल्य । शद्वाद्यष्टाङ्गपूर्णामनुपदमृषयोभावयन्त्युग्रभक्त्या पायाज्जीवस्वतत्त्वाद्यधिगतिकुशला साईती भारती नः ॥ १ ॥
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इसके अनन्तर जिज्ञासा होती है कि संसारी जीवके मर जानेपर यानी भुज्यमान आयुः कर्म भुगत चुकनेपर पूर्वजन्म सम्बन्धी शरीरके नष्ट होते सन्ते विचारक द्रव्यमनका भी विनाश हो चुका है, ऐसी दशामें असहाय आत्माकी भविष्यमें जन्म लेने योग्य क्षेत्रके प्रति अभिमुखपने करके प्रवृत्ति भला कैसे होगी ? बताओ । ईश्वर, खुदा, यमदूत आदि तो जैनसिद्धान्त अनुसार क्षेत्रान्तरमें ले जाकर जन्म करा देनेवाले माने नहीं गये हैं । उनके पक्षपाती पण्डितोंने जैसे वे माने हैं वैसे ईश्वर आदि प्रमाण सिद्ध भी नहीं हैं । इस प्रकार सप्रतारण जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज इस अग्रिम सूत्रका अवतार करते हैं ।
विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥ २५ ॥