Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
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योंमें अनुमान प्रमाण द्वारा जीव तत्त्वको साथ लेना चाहिये । पर्वतों या खानोंमें भी आकार विशेष पाया जाता है | अग्नि, जल, वायुमें भी युक्ति और आगमसे जीव तत्त्वको साध लेना चाहिये । 1 विज्ञान ( साइन्स ) के प्रयोगोंकी वृद्धि होनेपर इनमें भी जीवके साधक अनेक उपाय प्राप्त हो सकते हैं । तिस कारणसे यदि वनस्पति जीवोंकी उस आकारविशेषसे सिद्धि नहीं मानोगे तब तो मूर्छित या गाढ सोरहे आदि जीवोंके न्यारी न्यारी चैतन्य सन्तानों की भी सिद्धि भला कैसे कर सकोगे ? सन्तानान्तर या मूर्च्छित, गर्भस्थ, आदिके जीव तत्त्वोंकी व्यवस्थाका जो उपाय है वही स्थावर जीवोंका भी निर्णायक है । इस प्रकार जीव तत्त्वके प्रभेद हो रहे सन्तानान्तर या सुषुप्त आदिक प्रभेदोंकी व्यवस्था करानेवाले विद्वान् करके त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के जीवों में से किसी भी एकका निन्हव नहीं करना चाहिये । यहांतक त्रस और स्थावर जीवोंकी सिद्धि कर दी गयी है ।
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कोत्र विशेष ? स्थावरा इत्याह ।
इन सामान्य रूपसे जान लिये गये त्रस, स्थावर जीवोमें कौन कौन विशेष प्रभेद हैं ? ऐसा प्रश्न होनेपर प्रथम ही स्थावरोंके विशेष हो रहे भिन्न भिन्न जातिके जो स्थावर हैं, इस बातको ग्रन्थकार श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र द्वारा स्पष्ट कह रहे हैं । त्रस जीवोंका व्याख्यान अधिक है । अतः आनुपूर्वीकी अपेक्षा नहीं कर सूचीकटाह न्याय अनुसार पहिले स्थावर जीव ही कहे जा रहे हैं । लुहारके पास एक मनुष्य पहिले करैह्या बनवाने आया । उसके पीछे दूसरा लडका सुई बनवाने आया । यहां क्रम का उल्लङ्घन कर लुहार पहिले सुईवालेको निवटा देता है । इस क्रियाका नाम " सूचीकटाह न्याय " है । सुई पात्र घडीमें बनती है, करैह्या बनाने में दिन
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करना
भर लग जायगा ।
पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॥ १३ ॥
पृथिवी, जल, तेज, वायु, वनस्पस्ति ये पांच प्रकारके स्थावर जीव हैं। यहां पृथिवीजीव, पृथिवीकायिक, जलजीव, जलकायिक, तेजोजीव, तेजस्कायिक, वायुजीव, वायुकायिक, वनस्पतिजीव, वनस्पतिकायिक, ये स्थावर जीव माने जाते हैं ।
पृथिवीकायिकादिनामकर्मोदयवश । त्पृथिव्यादयो जीवाः पृथिवीकायिकादयः स्थावराः प्रत्येतव्या न पुनरजीवास्ते पामप्रस्तुतत्वात् ।
मूल प्रकृति माने गये नामकर्मकी उत्तर प्रकृति स्थावर नामक कर्म है । उसके भेद हो रहे पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, आदि नामकर्म के उदयकी अधीनता से अथवा असंख्याते उत्तरभेदों को धारनेवाली गति नामक प्रकृतिकी विशेष हो रही तिर्यग्गतिके प्रभेदों के उदयसे पृथिवी आदिक जीव ही पृथिवीकायिक, जलकायिक, आदिक स्थावर समझ लेने चाहिये । किन्तु फिर पृथिवी,