Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
बना रहना चाहिये या गृहमें आकाशके साथ घटका विभाग हो जानेपर अन्य घट, पट, आदिके साथ भी विभाग हो जायगा | एक अखण्ड आकाशमें किसीके साथ विश्लेष और अन्यके साथ संयोग मानना तो विरुद्ध पडेगा । यदि वैशेषिक उपचारसे आकाशके छोटे छोटे प्रदेशोंके भेदको मानकर उस प्रसंगका निवारण करेंगे तब तो उस ही कारणसे यानी अखण्ड, एक, व्यापक, आत्मामें उपचार से प्रदेशभेदोंकी कल्पना कर उस बन्ध या मोक्ष के प्रसंग का भी निषेध हो जाता है तो फिर आत्माको आकाश के समान एक माननेमें अथवा अनेक आत्माओं के समान आकाशको भी अनेक माननेमें क्यों आपत्तियां उठाई जाती हैं ? | यदि पूर्वपक्षी यों कहे कि एक ही आत्मा भला बद्ध और मुक्त भी कैसे हो सकता है ? क्योंकि सहानवस्थान नामका विरोध है । जिस आत्मामें बद्धपना है वहां मुक्ति नहीं और जहां मुक्तपना है वहां बद्धपना नहीं घटित हो पाता है । यों कहनेपर तो जैन भी कटाक्ष कर सकते हैं कि एक ही आकाश विचारा घट, पट, आदि करके बध रहा और उसी समय दूसरों से छूट रहा भला युगपत् किस ढंगले साधा जा सकता है ? इस प्रकार एक आत्माका पक्ष ले लेनेपर हमारे ऊपर उठाया गया यह आपत्ति या अनुपपत्तिरूप चोद्य आकाशको सर्वथा एक माननेवाले तुम्हारे समान रूपसे लागू हो जाता है। हां, यदि तुम आकाशके प्रदेशोंको भिन्न भिन्न स्वीकार कर लोगे तब तो हमारे यहां एक ही जीवके भी प्रदेशोका भेद हो जाओ । इस प्रकार जीव तत्त्वके भेद प्रभेदोंकी व्यवस्था भला कैसे हो सकेगी ? मनुष्य, पशु, पक्षी, माता, पिता, गुरु, बहिन, बेटी, ये सब अनेक प्रकार के जीव तुम्हारे यहां माने गये हैं । तिस कारण उस जीव तत्त्वके प्रभेदों की व्यवस्था को चाहनेवाले तुम करके क्रियासहित हो रहे जीव चलने फिरनेकी अपेक्षासे असर्वगत ही स्वीकार. कर लेने चाहिये । कीट, पतंग, पशु, पक्षी, सब चलते, घूमते, अव्यापक ही देखे जा रहे हैं । इस युक्तिसे त्रस जीवोंकी सिद्धि हो जाती है ।" स्थावरा एव " यहांसे लेकर " त्रससिद्धिः ” तक प्रकरण द्वारा स्थावर जीवों के एकान्तका निराकरण कर त्रसजीवोंको भी साध दिया है ।
ऊपर
सा एव न स्थावरा इति स्थावरनिन्हवोपि न श्रेयान् जीवतत्त्वप्रभेदानां व्यवस्थानाप्रसिद्धिप्रसंगात् । जीवतत्त्वसंतानांतराणि हि व्यवस्थापयन्न प्रत्यक्षाव्यवस्थापयितुमर्हति तस्य तत्राप्रवृत्तेः । व्यापारव्याहारलिंगात्साधयतीति चेत् न, सुषुप्तमूर्छिताण्डकाद्यवस्थानां संतानांतराणामव्यवस्थानुषंगात्तत्र तदभावात् । आकारविशेषात्तत्सिद्धिरिति चेत्, तत एव वनस्पतिकायिकादीनां स्थावराणां प्रसिद्धिरस्तु ।
कोई एकान्तवादी कह रहे हैं कि संसार में सब जीव त्रस ही हैं । स्थावर जीव कोई भी नहीं. है, ग्रन्थकार कहते हैं कि यों अन्यायी राजाकी आज्ञाके समान स्थावरजीवोंका अपलाप करना ( होते. (हुओं का निषेध करना) श्रेष्ठ नहीं है। हेतु हमारा वही है जोकि वार्तिकके उत्तरार्धमें कहा गया है। अर्थात् - जीव तत्त्वके प्रभेदोंकी व्यवस्थाके अप्रसिद्ध हो जानेका प्रसंग तुम्हारे ऊपर उठा दिया जावेगा ।