Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
देखिये, जीव तत्त्वके प्रभेद स्वरूप गुरु, माता, पिता, मित्र, पशु, पक्षी आदिकी भिन्न भिन्न सन्तानोंके नियमसे व्यवस्था करा रहे आप या और कोई आपका मित्र भला प्रत्यक्षसे तो उनकी व्यवस्था करानेके लिये समर्थ नहीं हो सकता है। क्योंकि उस युष्मदादिकोंके प्रत्यक्ष प्रमाणकी उन अनेक सन्तानोंके जाननेमें प्रवृत्ति नहीं हो रही है । इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष तो जड पदार्थोके रूप, रस, आदिको ही जान पाता है । और मानस प्रत्यक्ष केवल अपनी आत्मा या उसके सुख, दुःख, आदिकोंकी संवित्ति कर लेता है । अन्य आत्माओंकी व्यवस्था करानेमें प्रत्यक्षकी सामर्थ्य नहीं है। हां, यदि तुम शारीरिक व्यापार करना, वचन बोलना, हित अहित क्रिया करना, आदि ज्ञापक हेतुओंसे उन अन्य संतानोंकी सिद्धि कराओगे सो उस अनुमानका हेतु तो ठीक नहीं पडेगा । भागासिद्ध हेत्वाभास हो जायगा । क्योंके यों गाढरूपसे सोजानेकी अवस्था या मूर्छा प्राप्त हो जानेक, अव्यवस्था, अथवा अण्डेकी दशा आदिक अवस्थाओंको प्राप्त हो रहे सन्तानान्तरोंकी व्यवस्था नहीं हो सकनेका प्रसंग होगा । क्योंकि उन सुषुप्त आदिक दशाओंमें जीव है, किन्तु उन दशाओंमें उन शरीरक्रिया, वचन, उच्चारण, आदिक ज्ञापक लिंगोंका अभाव है । यदि भागासिद्ध हेतुका परित्याग कर जीवित अवस्थामें होनेवाले आकारविशेषसे सुषुप्त आदि दशाओंमें भी उन सन्तानान्तरोंके जीविततत्त्वोंकी व्यवस्था करोगे तब तो उस ही आकार विशेषसे वनस्पतिकायिक, पृथिवीकायिक, आदिक स्थावर जीवोंकी भी प्रसिद्धि हो जाओ । मनुष्य, पशु, पक्षी, पतंग, कीटके समान घास, मट्टी, आदिमें भी चैतन्यका साधक आकार विशेष पाया जाता है । भग्नक्षत संरोहण हो रहा देखा जाता है।
कः पुनराकारविशेषो वनस्पतीनां आहारलाभालाभयोः पुष्टिग्लानलक्षणः ततो यदि वनस्पतीनामसिद्धिरात्मनां तदा संतानांतराणामपि मूर्छितादीनां कुतः सिद्धिरिति जीवतत्त्वप्रभेदं व्यवस्थापयता त्रसस्थावरयोरन्यतरनिन्हवो न विधेयः।
सन्मुख बैठा हुआ एकान्तवादी पूंछता है कि वनस्पति जीवोंके कौनसा आकार विशेष है, जो कि उनको जीवतत्त्वका प्रभेद साध देगा ? इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं कि आहारके लाभ
और अलाभ होने पर पुष्टि और ग्लानि हो जाना यही उनके आकार विशेषका लक्षण है । अर्थात्वनस्पतियोंको खात, जल, भृत्तिका, वायु, आदिका आहार प्राप्त हो जाता है, तब तो वे हरे, भरे, पुष्ट, दीखते हैं और योग्य आहार नहीं मिलनेपर उनमें म्लानता आ जाती हैं, कोई कोई तो सूखकर मर जाते हैं । इस बातको वर्तमानके विज्ञानवेत्ताओंने भी युक्तियोंसे साध दिया है । मेघ, जल, सूर्यकिरणें, स्वच्छ वायु, इनका आहार करना समान होनेपर भी कई जातिकी वनस्पतियां भिन्न भिन्न प्रकार के खातों की अपेक्षा रखती हैं । कोई कोई वनस्पति तो रक्त, मांसका खात मिलनेपर परिपुष्ट होती हैं । कई वनस्पतियां अग्नि द्वारा तपानेपर शीतबाधाके मिट जानेसे पुष्ट होती हैं। शाखा, उपशाखाके टूट जानेपर पुनः प्ररोह हो जाता है । अतः वृक्ष, वेल, घास, आदि वनस्पति