Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
अनुभव कर चुका है, वही पीछे अनुभूत अर्थका स्मरण कर सकता है। दूसरे व्यक्तिसे अनुभूत अर्थका स्मरण नहीं कर पाता है ।
संतानैकत्वादनुस्मरणादिरिति चेन्न, तस्यात्मनिन्हवे संवृतिसतोनुस्मरणादि हेतुत्वाद्योगात् । परमार्थसत्त्वे वा नाममात्रभेदात् ।
____ यदि शंकाकार यों कहें कि उपयोगोंको क्षणिक मानते हुये भी उपयोगोंकी लडी बंधजानारूप सन्तानका एकपना होनेसे अनुस्मरण, परामर्श, आदिक हो जायगे । लोहेकी सांकलमें अनेक काडयोंके न्यारे न्यारे होते हुये भी एक दूसरेका सम्बन्ध बना रहता है । एक कडीके खींचनेपर पूरी सांकल खिचती, लटकती, बंधी, रहती है । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि तुम बौद्धोंने अन्वयी आत्म द्रव्यको छिपाया है, माना नहीं है, और सन्तानको संवृत्ति यानी व्यवहारसे सत् माना है । वस्तुतः संवृत्तिको असत् पदार्थ बतलाया है। ऐसी दशामें आत्मतत्त्वका अपलाप करनेपर केवल व्यवहारसे सत् हो रही, उस सन्तानको अनुस्मरण आदिका हेतुपना घटित नहीं होता है । हां, यदि बौद्ध उस संतानका परमार्थरूपसे सद्भाव स्वीकार कर ले, तब तो हमारे आत्मतत्त्व और तुम्हारे वस्तुभूत सन्तानमें केवल नामका ही भेद हो रहा कहना चाहिये । अर्थमें कोई भेद या विवाद नहीं रहा । सम्पूर्ण उपयोग विशेषोंमें आत्मद्रव्य अन्वित हो रहा है, जैसे कि सांकलकी कडीमें कडी सन्तानरूपसे पुव रही है । उपयोगका सर्वथा विनाश नहीं हो पाया है । किन्तु कथंचित् विनाश और कथंचित् स्थिति है, इस बातको हम अनेक बार कह चुके हैं।
उपयोगसंबंधो लक्षणं जीवस्य नोपयोग इति चेत् , स तर्हि जीवस्यार्थातरभूतेनोपयोगेन स संबंधो यदि जीवादन्यस्तदा न लक्षणमर्थातरवत् , अन्यथोपयोगस्यापि लक्षणत्वसि
देरविशेषात् । अर्थातरभूतेन संबंधेनाप्यपरः संबंधो लक्षणमिति मतं, कथमनवस्थापरिहारः ? सुदूरमपि गत्वा यदि संबंधः संबंधिनः कथंचिदनन्यत्वाल्लक्षणमिष्यते तदोपयोग एवात्मनो लक्षणमिष्यतां तस्य कथंचित्तादात्म्योपपत्तेः।
___ यहां वैशेषिकका कटाक्ष है कि उपयोगके सम्बन्ध हो जानेको जीवका लक्षण कहना चाहिये। उपयोग तो जीवका लक्षण नहीं सम्भवता है । जिस चिन्ह करके लक्ष्य व्यावृत्त कर लिया जाय वह चिन्ह लक्षण कहा जाता है । कौनेमें रखा हुआ दण्ड तो देवदत्तका लक्षण नहीं है, किन्तु पुरुषके साथ दंडका संयोग सम्बन्ध हो जाना पुरुषका लक्षण है । तभी वह संसर्ग ही दण्डरहित पुरुषोसे दण्डी पुरुषकी व्यावृत्ति कराता हुआ ज्ञापक लक्षण हो जाता है। उसी प्रकार भिन्न पडे हुये उपयोग को जीवका लक्षण नहीं कहकर उपयोगके समवायसम्बन्ध को जीव का ज्ञापक लक्षण मानना चाहिये। भोज्य पदार्थका उदर में संसर्ग हो जाना तृप्तिका हेतु है, थालीमें रखा हुआ भोज्य पदार्थ नहीं । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार यदि वैशेषिक कहेंगे तब तो हमारा यह विचार