Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ लोकवार्त
जैसे संसारी जीवोंके एकपनका पक्ष पकड़ लेना प्रमाणोंसे बाधित है, तिसी प्रकार मुक्त आत्माका एकपना मानने पर भी मोक्षके कारणोंका अभ्यास करना विफल पड़ेगा। क्योंकि उस अभ्यास करनेवाले जीवसे अन्य हो रहे मुक्तात्माका असम्भव है । वह विचारा किसके लिये व्यर्थ परिश्रम उठावे । जो बम्बई बैठा है वह बम्बई जानेका कष्ट क्यों उठाने लगा ? फिर भी मुमुक्षु जीवसे मुक्त जीवको यदि न्यारे होनेकी सम्भावना करोगे तो अनेक मुक्तात्माओं की सिद्धि हो जाती है । अर्थात् - मुक्तात्मा जब एक ही है और दूसरा कोई मुक्त हो नहीं सकता है तो ऐसी दशा में कोई उदासीन जीव मोक्षके साधन बन रहे स्वाध्याय, दीक्षा, तपस्या, ध्यान, आदिका अभ्यास क्यों करेगा? यदि श्रवण, मनन, आदि द्वारा चाहे किसी जीवके मुक्ति के साधनोंका अभ्यास करना मान लिया जायगा तो ऐसी दशा में असंख्य जीव मुक्तिके साधनको साधते हुये मुक्त हो जायंगे और यही मुक्तों की अनंतसंख्या मानना जैन सिद्धान्त है । कितनी ही कठिन परीक्षा क्यों न हो, यदि उसका पठनक्रम बना हुआ है और अध्यापक, विद्यालय, आदिका समुचित प्रबन्ध है, तब वर्षमें एक सहस्र या बारहसौ सोलह सौ विद्यार्थी तो परीक्षा देकर उत्तीर्ण हो ही जायंगे । अभ्यासी, ज्ञानवान् के लिये कोई काम असम्भव नहीं है। अद्वैतवादी यों कहें कि जो जो संसारी जीव मुक्तिके साधनोंका अभ्यास करता हुआ निर्वाणको प्राप्त हो जाता है वह वह जीव परमब्रह्म एक अद्वैत आत्मामें लीन हो जाता है, जैसे कि घट उपाधि फूट जानेपर घटाकाश ं महान् आकाशमें लयको प्राप्त हो जाता है । आचार्य कहते हैं कि यह कहना भी युक्तियोंसे रीता है । क्योंकि यों तो उस मुक्त जीवके अनित्यपनका प्रसंग आयेगा । अनादि काल से चले आरहे उगत्माका मुक्त हो जानेपर खोज मिट जायगा ' अतः आत्माके मुक्त अवस्थामें सर्वथा नष्ट हो जानेसे अनित्यपनकी आपत्ति हुई । इससे तो पहिले सुख, दुःख, कैसी भी अवस्थामें जीवित बना रहना कहीं अच्छा था । कौन विचारशील पुरुष अपना खोज खो देने के लिये ऐसी प्रलयकारिणी मुक्तिकी अभिलाषा करेगा ? करोडों, असंख्यों, रुपयों का पारितोषिक देने पर भी कोई दरिद्रातिदरिद्र जीव भी अपना जीवन अर्पण करने के लिये उद्युक्त नहीं होता है । क्योंकि पारितोषिकका भोग भोगने के लिये उसका जीवन ही नहीं रहा । तिस कारणसे 1 सम्पूर्ण मुक्त जीवोंके उस एकपनका प्रवाद बकते रहना यों वह भी सिद्धान्त विचारा दृष्ट और इष्ट प्रमाणसे बाधित हो जाता है ।
यदि पुनः संसारिमुक्ता इति द्वन्द्वो निर्दिश्यते तदाप्यर्थीतरप्रतिपत्तिः प्रसज्येत संसारिण एवं मुक्ताः संसारिमुक्ता इति, तथा संसारिमुक्तैकत्वमवादः स्यात् स च दृष्टेष्टबाधितः, संसारिणां मुक्तस्वभावानाश्रयसंवेदनात् संसारित्वेनैवानुभवात् मुक्तिसाधनाभ्युपगमविरोधाच्च मुक्तस्यापि संसार्यात्मकत्वाप्रच्युतेः ।
यदि फिर कोई यों कहे कि " संसारिमुक्तौ " यों द्वन्द्व करनेपर तो सभी संसारी जीव एक और सभी मुक्त जीवों एक हो जानेका प्रसंग आता है । किन्तु “ संसारिमुक्ताः " ऐसा सूत्र कर