Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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अतः वह च शब्द सार्थक है ।
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हैं । वे तेरहवें, चौदहवें, गुणस्थानवर्ती जीव जिस च शब्द करके समुच्चय ग्रस्त कर लिये जाते हैं । यहां कोई कहे ईषत् संसारको धारनेवाले तेरहवें गुणस्थान वर्ती नोसंसारी जीव तो संसारी ही हैं । जबतक कोई जीव संसार में ठहरेगा उसका संसारी जीवोंमें अन्तर्भाव किया जायगा, आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि उन सयोग के वलियों का पंचपरिवर्तन करनेवाले संसारीजीवोंसे विधर्मपना है । कारण कि संसारीजीव तो अनेक दूसरे दूसरे भवोंको प्राप्त होते रहते हैं । किन्तु सयोगकेवली जीवोंको पुनः दूसरे भवकी प्राप्ति होना रूप संसारका अभाव है । ऐसी दशामें उनको संसारी कहने में जी हिचकिचाता है । खात, चने, लड्डू, सब एक कोटि नहीं गिने जाते हैं । संसारके कारण हो रहे मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय, इनका सयोग केवलियोंमें अभाव है । इन चारोंकी सहायता के बिना केवल योग विचारा एक समय स्थितिको रखनेवाले सातावेदनीय कर्म मात्रका आस्तव करता है, जो कि अकिंचित्कर है । यदि यहां कोई यों कह बैठे कि जब सयोग केवलीके अन्य भवोंकी प्राप्तिरूप संसार नहीं है और संसार के मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, और कषाय ये चार कारण भी नहीं हैं, तब तो इस प्रकार वे सयोगकेवली असंसारी हो गये । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह प्रसंग नहीं उठाना चाहिये । क्योंकि विशेषरूपसे संसारका कारण हो रहे और कर्मों के आगमनका हेतु बन रहे केवल योगका सद्भाव सयोगकेवली के पाया जाता है । उस योग के द्वारा शरीर, भाषा और मनको बनाने उपयोगी नोकर्मद्रव्यका और सातावेदनीय कर्मका प्रतिक्षण आगमन होता रहता है। अतः संसारी और असंसार ( सिद्ध ) दोनों प्रकार के जीवोंसे रहित तेरखें गुणस्थानवाले जीव नोसंसारी हैं। यहां पुनः किसीका कटाक्ष है कि क्षपक श्रेणीवालोंको छोडकर ग्यारहवें गुणस्थानतक के जीव भले ही संसार परिभ्रमण करते हुये संसारी कहे जाय, किन्तु जिनकी कषायें क्षयको प्राप्त हो चुकीं हैं, ऐसे बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव तो सयोगकेवलियों के समान नोसंसारी ही कहे जांयगे । तुम जैनोंको अभीष्ट हो रहे नोसंसारीपन के लक्षणका क्षीणकषाय जीवोंमें सद्भाव है । संसारके चार प्रधान कारणों और अन्य भवोंकी प्राप्तिका उनके अभाव है। आचार्य कहते हैं कि यों कहनेपर तो हमको कुछ अनिष्ट नहीं पडता है । भले ही बारहवें गुणस्थानवालों को भी नोसंसारी कइ दो । उनका भी च शब्द करके समुच्चय कर लिया जायगा । " बालादपि हितं ग्राह्यं युक्तियुक्तं मनीषिभिः " इस नीति के अनुसार किसीकी भी युक्तिपूर्ण बातको मानने के लिये हम सन्नद्ध हैं ।
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अयोगकेवलिनो मुक्ता एवेति चेन्न तेषां पंचाशीतिकर्मप्रकृतिसद्भावान्, कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षाभावादसंसारित्वायोगात् । न चैवं ते नोसंसारिणः केवलिनः संसारिनो संसार्यसंसारित्वव्यपेताञ्चायोगकेवलिनो हीष्टास्ते संसारकारणस्य योगमात्रस्याप्यभावात् तत एंव न संसारिणस्तत्त्रितयव्यपेतास्तु निश्चीयते ।