Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वे संसारी जीव त्रस हैं और स्थावर भी हैं। यदि उन दोनोंमेंसे किसी भी एकका अविश्वास या अपलाप किया जायगा तब वो नीवतत्त्वके प्रभेदोंकी व्यवस्था करना अप्रसिद्ध हो जायगा । भावार्थजीवतत्त्व आकाशतत्त्वके समान अकेला नहीं है। किन्तु उसके संसारी और मुक्त दो भेद हैं । संसारी जीवोंके त्रस और स्थावर एवं प्रप्तोंके भी द्विइन्द्रिद, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तथा स्थावरोंके पृथिवीकायिक, जलकायिक, आदि प्रभेद हैं । इन प्रभेदोंकी प्रमाणों द्वारा सिद्धि हो रही है। हिताहित पूर्वक क्रिया, जन्म, मरण, स्मरण, पुरुषार्थ, आदिक कार्योको कर रहे स जीव न्यारे न्यारे अनेक प्रसिद्ध ही हैं । तथा पृथिवी या वृक्ष आदि वनस्पतियोंमें भी युक्तियोंसे जीवसिद्धि कर दी जाती है । कोई कोई वैज्ञानिक वृक्षों में स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षुः, श्रोतृ, इन पांचो इन्द्रियोंको सिद्ध करनेका प्रयत्न कर रहे हैं। किन्तु उनका यह प्रयत्न व्यर्थ पडेगा । भले ही वनस्पति जीवोंमें चक्षुः, कर्ण, आदि इन्द्रियों द्वारा होनेवाले कार्यसारिख परिणाम पाये जाय । चींटियां, मक्खी, आदि छोटे छोटे कीट पतंग भी मेघ बरसनेके पहिले बिलोंमें या घरोंमें घुप्तकर अपनी रक्षाका उपाय कर लेते हैं, सूहर, काक, कितनी ही देर पहिलेसे आंधी आनेका अव्यर्थ, अचूक, ज्ञान कर लेते हैं। एतावता वे कीट पतंग या पशुपक्षी बिचारे ज्योतिषशास्त्र या निमित्तशास्त्रोंके ज्ञाता नहीं कहे जा सकते हैं। बात यह है कि जगत्के पदार्थों में प्रतिक्षण अनेक परिणाम होते रहते हैं। वृष्टिके पहिले वायु या पृथिवीमें ऐसी परिणतियां हो जाती हैं जिनको कि अपनी प्रात एक या दो तीन इन्द्रियों द्वारा अनुभव कर वे जीव अहित मार्गसे अपनी रक्षा कर लेते हैं। वृक्षकी जड गीले स्थल या पानी अथवा गढे हुये धन की ओर अधिक जाती है । इतनेसे ही वह आंखवाला नहीं कहा जा सकता है। छुई मुई नामक वनस्पतिको छू लेनेसे कुछ देरके लिये मुरझा जाती है, एतावताः उसको लज्जाशील कुलीन स्त्रीके समान मनइन्द्रियवाली नहीं कह सकते हैं । जीव पदार्थ तो क्या, जड पदार्थ भी निमित्ताके मिल जानेपर नाना परिणतियोंको धार लेते हैं । जो कि चेतन जीवोंको . भी. विस्मयकारक हो रही है । वृक्षमें मट्टी, खात या जलसे बन गया रस यहां वहां वृक्षसम्बन्धी आत्माके अव्यक्त अस्वसंवेद्य पुरुषार्थद्वारा फल, पत्ते, शाखाये, छाल आदिके उपयोगी होकर भेजा जा रहा है। किन्तु वहां आंखे नहीं हैं। चक्षुष्मान् मनुष्य या पशुओंके पेटमेंसे भी अन्य शरीरके अवयवोंकी पुष्टिके लिये रस रुधिर, आदि खाने किये जाते हैं, किन्तु वहां पेटके भीतर चक्षुका व्यापार नहीं है। वैज्ञानिकांके घरमें रक्खे हुये यंत्र भी वृष्टि, भूकम्प, ग्रहगतिको बता देते हैं, किन्तु वे जड पदार्थ अष्टाङ्ग निमित्तके ज्ञाता विद्वान् नहीं हैं । घडी, थर्मामेटर, आदि विशेष यंत्रों करके समयका परिज्ञान या उष्णता (गर्मी ) शीतता ( सर्दी) का ज्ञान हो जाता है । तराजू या कांटा अथवा फुटा जितना ठीक पदार्थको तौल देते हैं, बडा भारी नैयायिक या सिद्धान्तशास्त्री भी उतनी ठीक ठीक तौल या नापको नहीं बता सकता है । छोटे बच्चेके अण्डकोषोंकी सिकुडन या ढीलेपनसे ठंड और उष्णताकी परीक्षा हो जाती है । हाथीकी ठीक तौल कर ली जाती है । नदीमें वहा देनेसे ठीक गोल डण्डेके