Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
अर्थ की प्रतीति हो जाने का प्रसंग आजानेसे वह का वही दोनों जीवोंके एकपनका कुत्सित आग्रह ही पुन: उपस्थित हो जायगा और वह एकत्व पक्ष तो दृष्ट और इष्टसे बाधित है, इस बातको हम दो, तीन, वार कह चुके हैं । लावव का विचार कर यदि संसारी और मुक्त इन दो पदोंका द्वंद्व दिया जाता तो अल्पअक्षर और पूज्यपना होनेसे मुक्त शब्द का पूर्व निपात हो जानेपर “ मुक्तसंसारिणः ” ऐसा पद बन जाता । और ऐसी दशामें छोड दिया है संसार जिसने वह मुक्त संसार स्वरूपभाव है, और तद्विशिष्ट मुक्त जीवोंको ही उपयोग सहितपना प्रात होता । शेष उन मुक्तोंसे अनन्त गुणे संसारी जीव छूट जाते । अतः " स्पष्टवक्ता न वंचकः ” इस नीतिके आधारपर श्री उमास्वामी महाराजने इष्ट अर्थकी होली जलानेवाले समासके झगडे न पडकर न्यारे न्यारे पदोंवाला सूत्र रच दिया है।
'च शद्वोनर्थक इति चेन्न, इष्टविशेषसमुच्चयार्थत्वात् । नासंसारिणः सयोगकेवलिनः संसारिनोसंसार्यसंसारित्वव्यपेतास्त्वयोगकेवलिनोभीष्टास्ते येन समुच्चीयते । नोसंसारिणः संसारिण एवेति चेन्न, ते । संसारिवैधाद्भवांतरावाप्तेरभावात् । मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमाद कषायाणां संसारकारणानामभावात् । न चैवमसंसारिण एव ते, योगमात्रस्य संसारकारणस्य कर्मागमनहेतोः सद्भावात् । क्षीणकषायाः संयोगकेवलिवन्नासंसारिण एवेति चन्न किंचिदनिष्टं । . किसीको शंका है कि इस सूत्रमें च शद्व व्यर्थ है । क्योंकि पृथग्विभक्तिवाले बहुवचनान्त दो पदों का प्रयोग कर देनेसे ही संसारी और मुक्त जीवोंमें अर्थभेद सिद्ध हो जाता है। अब आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । कारण कि इष्ट हो रहे विशेष आत्माओंका समुच्चय करनेके लिये सूत्रकारने च शब्दका प्रयोग किया है । समुचय, अन्वाचय, इतरेतरयोग, समाहार, इस प्रकार चकारकी अर्थचौकडीमेसे यहां च का अर्थ समुच्चय पकडा गया है । जिन जीवोंका संसारमें निवास अत्यल्प शेष रह गया है, अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षसे कमती एक कोटि पूर्व वर्ष इतना अधिकसे अधिक संसार शेष है, ऐसे तेरखें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली भगवान् नोसंसारी जीव हैं । गर्भके नौ मास मिलाकर अठ वर्षका अर्थ पौने नौ वर्ष करना चाहिये । भोगभूमियोंमें मनुष्यों के उनचास दिनमें सम्यक्त्व हो सकता है और भोगभूमिके तिर्यचों के सात आठ दिनमें सम्यक्त्व हो सकता है । इसमें भी गर्भवासके दिन और जोड लेने चाहिये । इसी प्रकार कर्मभूमिक तिर्थचमें छह महीने पश्चात् सम्यक्त्व या व्रतधारण करनेकी योग्यता हो जाती है । यहां भी गर्भके दिनोंको अधिक जोड लेना चाहिये । कई ग्रन्थोंमें मनुष्य तिथंचों के आठ वर्ष या उनचास दिन और छह महीने या सात आठ दिन लिख दिये हैं । उनमें गर्भके दिनों को जोडनेकी विवक्षा नहीं की गयी है। किन्तु उनका जोडना आवश्यक है । तथा पहिले गुणत्थानसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान या बारहवें गुणस्थानतकके संसारी जीत्र और तेरहवें गुणत्थानवी नोसंसारी जीव तथा संसारीपनेसे सर्वथा छूट गये सिद्धजीव इन तीनों प्रकारके जीवोंसे रहित हो रहे चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली जीव भी तो हमें अभीष्ट