Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ श्लोक वार्तिके
एक अर्थमें अपनी चित्तवृत्तिका निरोध कर लेना ध्यान है । छद्मस्थ जीवोंमें यह ध्यान मुख्यरूपसे घट जाता है । इधर उधर अनेक स्थानोंपर चिन्ताको फैंकनेवाला जीव पुरुषार्थद्वारा कुछ देर तक मानसिक प्रवृत्तिको यहां वहांसे हटा कर वहीं एक पदार्थमें मनको ठहरा सकता है। किन्तु सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, जीवन्मुक्तके ध्यान मानना उपचार मात्र है । तिस ही प्रकार उपयोगकी प्रवृत्ति भी मुक्तोंमें गौणरूप 1 मानी गयी है । इस विषय की व्याख्यान द्वारा विशेष प्रतिपत्ति हो जाती है । च शब्द तो अपने चार अर्थोंमेंसे किसी एक अर्थका द्योतक हो जाता है ।
संसारिग्रहणमादौ कुत इति चेत्, संसारिणां बहुविकल्पत्वात्तत्पूर्वकत्वान्मुक्तेः । स्वयंवेद्यत्वाच्चेत्येके, उत्तरत्र प्रथमं संसारिप्रपंचप्रतिपादनार्थे चेत्यन्ये ।
यहां किसीकी शंका है कि बताओ, सूत्रमें संसारी जीवों का ग्रहण आदिमें किस कारण से किया गया है ? द्वन्द्व समास न होते हुये भी न्यारे न्यारे पदोंका उच्चारण करो तो भी पूज्यजीव माने गये मुक्तोंका पहिले निर्देश करना उचित था । यों कहनेपर तो कोई एक आचार्य यह समाधान करते हैं कि संसारी जीवों के बहुत भेद प्रभेद हैं तथा मोक्षको संसारपूर्वकपना है । पहिले संसार है पीछे मोक्ष होती है । अतः वाच्यकी प्रवृत्ति अनुसार वाचक शब्द कहने चाहिये । तीसरी बात यह है कि ग्रन्थकार श्री उमास्वामी महाराज स्वयं संसारी जीव हैं, जिसका दिन रात सम्वेदन होता रहता है, उसकी बिना बुलाये शीघ्र उपस्थिति हो जाती है । संसारीपनका उनको स्वयं सम्वेदन होता रहता है | संसारी जीव ही ग्रन्थों के निर्माता, श्रोता, प्रचारक, हैं । अतः एक अपेक्षा यहां संसारियोंकी मान्यता है । कृतकृत्य हो चुके मुक्तजीव अपनी स्वात्मसिद्धिमें पगे हुये हैं, वे यहां अत्यन्त परोक्ष होनेसे गौण विवक्षित किये गये हैं । दूसरे अन्य आचार्य उक्त शंकाका समाधान यों करते हैं कि उत्तरवर्ती ग्रन्थ में सबसे प्रथम संसारी जीवों के भेद, प्रभेद, जन्म, शरीर, आदिक प्रपंचका प्रतिपादन करनेके लिये सूत्रमें पहिले संसारी शद्वका ग्रहण है । श्री विद्यानन्द स्वामीको एक आचार्य और दूसरे अन्य आचार्य दोनोंका मन्तव्य अभीष्ट हो रहा दीखता है ।
यद्येवं किं विशिष्टाः संसारिण इत्याह सूत्रं ।
किसीका प्रश्न है कि यदि इस प्रकार बहुत विकल्पवाले संसारी जीव हैं तो बताओ, वे संसारी जीव किन किन विशेषणोंसे घिरे हुये हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको स्पष्ट कर रहे हैं ।
समनस्कामनस्काः ॥
११ ॥
उन संसारी जीवोंमें कुछ जीव तो मनसे सहित हो रहे समनस्क हैं और शेष एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञिपंचेन्द्रिय पर्यन्त गिनाये जा रहे संसारी जीव अमनस्क हैं, यो संसारी जीवों की दो बडी मण्डलियां हैं।