Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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अनन्तानन्त जीवविशेष संसारी बन रहे हैं तथा जिन जीवोंका पौद्गलिक द्रव्यबन्ध और राग, द्वेष, अज्ञान, मूर्ति, गुरु, लघुपना, आदि भावबन्ध अपने पुरुषार्थद्वारा अनन्तकालतकके लिये निरस्त कर दिया गया है, वे मुक्त हैं । इस प्रकार सामान्यरूपसे कह दिये गये जविके ये दो भेद संसारी और मुक्त हो जाते हैं । यों सूत्रका अर्थ घटित हो जाता है, तिस कारणसे सिद्ध हुआ कि उपयोग नामके लक्षण करके एक अद्वैत जीव ही लक्ष्य नहीं है, किन्तु द्रव्यरूपकरके अनन्तानन्त संख्याको धार रहे जीव ही उपयोगकरके चीन्हे जाते हैं । इसी बातको श्रीविद्यानन्दस्वामी सम्पूर्ण विद्वानोंके सन्मुख निवेदन करें देते हैं, उसको समझ लीजियेगा ।
लक्ष्याः संसारिणो जीवा मुक्ताश्च बहवोन्यथा। तदेकत्वप्रवादः स्यात्स च दृष्टेष्टबाधितः ॥१॥
इस उपयोगके प्रकरणमें मुक्तोंसे अनन्त गुणे बहुतसे संसारी जीव और बहुत अनन्तानन्त मुक्त जीव इस उपयोगके लक्ष्य हो रहे हैं । अन्यथा यानी उपयोग लक्षणसे व्याप्त हो रहे वहुत जीव न माने जाकर दूसरे प्रकारसे अद्वैत ब्रह्म ही माना जायगा तब तो उस जीव तत्त्वके एकपनका प्रवाद फैल जायगा, और वह ब्रह्माद्वैत वादियों द्वारा ढोल पीटकर प्रसिद्ध कर दिया गया आत्माके एकपनका प्रवाद तो दृष्टप्रमाण यानी प्रत्यक्षप्रमाण और इष्टप्रमाण अनुमान आदिसे बाधित हो रहा है।
संसारिण इति बहुत्वनिर्देशादहवो जीवा लक्षणीयास्तथा मुक्ताश्चेति वचनात्ततो न द्वंद्वनिर्देशो युक्तः संसारिमुक्ताविति । तन्निर्देशे हि संसार्येक एव मुक्तश्चैकः परमात्मेति प्रवादः प्रसज्येत । न चासौ श्रेयान् दृष्टेष्टबाधितत्वात् ।
इस कारिकाका विवरण यों है कि गुरूणां गुरु श्री उमास्वामी महाराजने इस सूत्रमें संसारिणः ऐसा बहुत्व संख्याको कहनेवाली जिस विभक्तिको धार रहे “ संसारिणः ” इस प्रकार बहुवचन शब्द स्वरूपका कथन किया है। इससे प्रतीत होता है कि एक नहीं किन्तु बहुतसे जीव इस उपयोग लक्षणसे लक्ष्य बनाने योग्य हैं । तथा “ मुक्ताः ” इस प्रकार बहुवचनान्त मुक्त शद्वका कथन करनेसे बहुतसे मुक्त जीव उस उपयोगके लक्ष्य हैं, यह निर्णीत हो जाता है । तिस ही कारणसे लाघव गुणका विचार कर " संसारी च मुक्ताश्च ” यों द्वंद्व समास कर “ संसारिमुक्तौ " ऐसा सूत्र कथन करना श्री उमास्वामी महाराजको समुचित नहीं जचा । यदि अर्थको विघात करनेवाली कोरी लघुताका विचार कर वह संसारी एक और मुक्त एक यों उन दो ही जीवोंका निर्देश किया जाता, तब तो नियमसे संसारी जीव एक ही है और मुक्त जीव परमात्मा एक ही है, इस प्रकारके प्रवादका प्रसंग प्राप्त हो जाता । किन्तु वह प्रवाद तो श्रेष्ठ नहीं है । क्योंकि उस सिद्धान्तमें प्रत्यक्ष, अनुमान, आदि प्रमाणोंसे अनेक बाधायें प्राप्त हो रहीं हैं । उन्हीं बाधाओंको दिखाते हैं ।