Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
तथात्मा नास्तीति पक्षश्च प्रत्यक्षानुमानागमबाधितोवगम्यत इति साधने दोषदर्शनात् नातः साधनादात्मनिन्हवसिद्धिर्यतोस्य नोपयोगो लक्षणं स्यात् ।
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तथा चार्वाकोंने आत्माके अभावको साधने के लिये जो अनुमान बनाया था, उस अनुमानका आत्मा नहीं है । इस प्रकार पक्ष ( प्रतिज्ञा ) भी तो प्रत्यक्ष अनुमान और आगम प्रमाणसे बाधित हो रहा जाना गया है । पूर्व प्रकरणोंमें साथ दिये गये केवलज्ञानसे संपूर्ण मुक्त, संसारी, आत्माओं का प्रत्यक्ष हो रहा है । अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान द्वारा भी संसारी बद्ध आत्माका विकल प्रत्यक्ष हो जाता है, तथा स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे मैं मुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, ज्ञ हूं, आदि आकारों का उल्लेख करते हुये आत्माका स्वतः प्रत्यक्ष हो रहा है । एवं बाधकों का असम्भव या हित, अहित के प्राप्तिपरिहारकी क्रिया आदि हेतुद्वारा आत्माका अनुमान हो जाता है, सर्वज्ञकी आम्नायसे चले आ रहे " जीवाश्च, जीवो उपओगमओ, गुणजीवा पज्जत्ती, इत्यादि आगमवाक्योंसे आत्माका अस्तित्व निर्णीत है । अतः प्रमाणोंसे बाधित होकर जाने जा रहे साध्यके निर्देश अनन्तर प्रयुक्त हो जानेसे चार्वाकों का हेतु कालात्ययापदिष्ट है । इस प्रकार चार्वाकोंद्वारा कहे गये अनुपलम्भ आदि हेतुओं में असिद्ध व्यभिचार विरुद्ध, बाधित, इन दोषोंके दीख जानेके कारण इन हेतुओंसे आत्मा के अपलाप ( होती हुई वस्तु के लिये मुकर जाना ) की सिद्धि नहीं हो सकती है । जिससे कि इस आत्माका लक्षण उपयोग न हो सके । अर्थात् चार्वाकोंने पहिले जो ये कहा था कि लक्ष्य बनाये जा रहे आत्माका असत्त्व होनेसे उसका लक्षण उपयोग नहीं घटित होता है, यह उनका कहना ठीक नहीं पडा । आत्मतत्त्वकी सिद्धि कर दी गयी है । अतः उपयोग उसका लक्षण बन सकता है । कोई आपत्ति नहीं है ।
किं च, स एवाहं द्रष्टा, स्पृष्टा, खादयिता, घाता, श्रोतानुस्मृता, वेत्यनुसंधानप्रत्ययो गृहीतृकृतः करणजविज्ञानेषु चाऽसंभाव्यमानत्वात् तेषां स्वविषयनियतत्वात् परस्परविषयसंक्रमाभावात्
। इस प्रकारके अनुसंधान करनेक्योंकि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुये
आत्मतत्त्वकी सिद्धि करनेका एक विचार यह भी है कि जो ही मैं चक्षुसे देखनेवाला हूँ, वही मैं छू रहा हूं वहीं मैं स्वाद ले रहा हूं, सूंघ रहा हूं, अथवा सुननेवाला हूं, इन्द्रियों या मनसे अनुभव कर चुकनेपर धारणा ज्ञानद्वारा वही मैं स्मरण करनेवाला वाले ज्ञान ( पक्ष ) गृहीता आत्मा करके बनाये गये हैं ( साध्य ) अविचारक विज्ञानोंमें उक्त प्रकारके अनुसंधान होनेका असम्भव हो रहा है इन्द्रियां अपने अपने नियत विषय हो रहे स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द, सञ्चेतना को जानकर चरितार्थ हो जाती हैं । छः मासका छोटा बच्चा या, असंज्ञी या चौइन्द्रिय जीव दर्पणमें अपने प्रति बिम्बको चक्षुसे देख लेता है, किन्तु यह मेरी छाया है इसके अनुसार मुझे अपने मुखका धब्बा मिटा डालना चाहिये इत्यादि विचार नहीं कर पाता है । चक्षु केवल रूपको देख लेगी ।
( हेतु ) वे स्पर्शन आदिक
रसना रसको
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