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* प्रस्तावना
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श्रीमद् राजचन्द्र के पत्रों और लेखोंकी इस आवृत्तिकी प्रस्तावना लिखनेके लिये मुझे श्रीरेवाशंकर जगजीवनने जिन्हें मैं अपने बड़े भाईके समान समझता हूँ, कहा, जिसके लिये मैं इन्कार न कर सका । श्रीमद् राजचन्द्रके लेखोंकी प्रस्तावनामें क्या लिखें, यह विचार करते हुए मैंने सोचा कि मैंने जो उनके संस्मरणोंके थोडेसे प्रकरण यरवदा जेलमें लिखे हैं, यदि उन्हें दूं तो दो काम सिद्ध होंगे । एक तो यह कि जो प्रयास मैंने जेलमें किया है वह अधूरा होनेपर भी केवल धर्मवृत्तिसे लिखा गया है, इसलिये उसका मेरे जैसे मुमुक्षुको लाभ होगा; और दूसरा यह है कि जिन्हें श्रीमद्का परिचय नहीं उन्हें उनका कुछ परिचय मिलेगा और उससे उनके बहुतसे लेखोंके समझनेमें मदद मिलेगी।।
नीचेके प्रकरण अधूरे हैं, और मैं नहीं समझता कि मैं उन्हें पूर्ण कर सकूँगा। क्योंकि जो मैंने लिखा है, अवकाश मिलनेपर भी उससे आगे बहुत जानेकी मेरी इच्छा नहीं होती । इस कारण अपूर्ण अन्तिम प्रकरणको पूर्ण करके उसमें ही कुछ बातोंका समावेश कर देना चाहता हूँ।
इन प्रकरणों में एक विषयका विचार नहीं हुआ। उसे पाठकोंके समक्ष रख देना उचित समझता हूँ। कुछ लोग कहते हैं कि श्रीमद् पच्चीसवें तीर्थकर हो गये हैं। कुछ ऐसा मानते हैं कि उन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया है । मैं समझता हूँ कि ये दोनों ही मान्यतायें अयोग्य हैं। इन बातोंको माननेवाले या तो श्रीमद्को ही नहीं पहचानते, अथवा तीर्थकर या मुक्त पुरुषकी वे व्याख्या ही दूसरी करते हैं। अपने प्रियतमके लिये भी हम सस्यको हल्का अथवा सस्ता नहीं कर देते हैं। मोक्ष अमूल्य वस्तु है । मोक्ष आत्माकी अंतिम स्थिति है। मोक्ष बहुत मॅहगी वस्तु है। उसे प्राप्त करने में, जितना प्रयत्न समुद्रके किनारे बैठकर एक सकि लेकर उसके ऊपर एक एक बूंद चढ़ा चढ़ाकर समुद्रको खाली करनेवालेको करना पड़ता है और धीरज रखना पड़ता है, उससे भी विशेष प्रयत्न करनेकी आवश्यकता है । इस मोक्षका संपूर्ण वर्णन असम्भव है । तीर्थकरको मोक्षके पहलेकी विभूतियाँ सहज ही प्राप्त होती हैं। इस देहमें मुक्त पुरुषको रोगादि कभी भी नहीं होते । निर्विकारी शरीरमें रोग नहीं होता। रागके बिना रोग नहीं होता। जहाँ विकार है वहाँ
* यह प्रस्तावना महात्मा गांधीने परमभुतप्रभावकमण्डलद्वारा संवत् १९८२ में प्रकाशित श्रीमद् राजचन्द्रकी द्वितीय आवृत्ति के लिये गुजराती में लिखी थी। यह उसीका अनुवाद है।-अनुवादकर्ता.