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[चौबीस
शासन-प्रभावना:इसी वर्ष आप अहमदाबाद पधारे और नागौरी सराय में बिराजे । वहाँ भगवती सूत्र पर अापके बड़े ही तर्क और तत्त्व से पूर्ण मधुर व्याख्यान होते थे। वहाँ मारणकलालजी नामक एक सम्पन्न सद् गृहस्थ रहते थे। स्थानकवासियों के संसर्ग से उनकी मूर्तिपूजा की श्रद्धा क्षीण हो गई थी। किन्तु श्रीमद् के उपदेश से वे पुनः मूर्तिपूजक बन गये और उन्होंने एक जिन चंत्यालय बनाया, जिसकी प्रतिष्ठा संवत् १७८४ में श्रीमद् के वरद-हस्तों से हुई थी। रवंभात चातुर्मास एवं सिद्धाचल पर पेढ़ी स्थापन:
रखंभात श्रीसंघ के अत्याग्रह से संवत् १७७६ का आपका चातुर्मास रवंभात में हुआ। वहाँ आपके व्याख्यानों से अनेको लोग प्रभावित हुए । श्रीमद् के स्तुतिस्तवों, गिरिराज पर निर्माण-कार्य, एवं बार-बार वहां जाने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी सिद्धाचल के प्रति अगाध भक्ति एवं अनन्यश्रद्धा थी। अतः, इस चातुमास में आपने तीर्थराज की महिमा का अपूर्व वर्णन किया।
सिद्धाचल इतना प्राचीन एवं पवित्र तीर्थ होते हुए भी इस तीर्थ की सुचारू व्यवस्था के लिये कोई सुसंगठित संस्था या पेढ़ी नहीं थी। तीर्थ के पंडे, पुजारी तीर्थ पर एकाधिकार जमाए बैठे थे। तीर्थ की सारी आय वे ही हड़प कर जाते थे। व्यवस्था की दृष्टि से वास्तव में तीर्थ की दशा बड़ो दयनीय व हृदय विदारक थी। श्रीमद् को इस बात का गहरा दुःख था और वे इसके लिये समुचित उपाय करना चाहते थे । अतः, रवंभात चातुर्मास में उन्होंने तीर्थ की समुचित व्यवस्था हेतु एक संस्था स्थापित करने का मार्मिक उपदेश दिया । आपकी प्रेरणा के फलस्वरूप उसी वर्ष एक पेढ़ी की स्थापना हुई । अनेक सामयिक परिवर्तनों से गुजरती हुई उस पेढ़ी का विकसित रूप वर्तमान की इस आनंदजी, कल्याणजी पेढ़ी को कह दिया जाय तो कोई अनुचित नहीं होगा। पेढ़ी की स्थापना के बारे में कवियरण कहते हैं
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