________________
प्रथम-खण्ड
श्री सीमंधर जिन स्तवन
(श्री श्री सीमंधरस्वामिजी-ए देशी) प्रभुनाथ तुं तीय लोक नो, प्रत्यक्ष त्रिभुवन भाण । सर्वज्ञ सर्व दर्शी तुम्हे, तुम्हे शुद्ध सुख नी खाणि ॥१॥ जिनजी वीनती छ एह ।।प्रांकणी।। प्रभु जीव जीवन भव्यना, प्रभु मुझ जीवन प्राण । ताहरे दरसन सुख लहुँ, तुं ही जगति थिति त्राण ॥२॥जि०॥ तुझ बिना हुं चउगति भम्यो, धरयां वेष अनेक । निज भाव में परभाव नौ, जाण्यौ नहीं सुविवेक ।।३।।जि०॥ धन तेह जे तितु प्रह समै, देखै ज जिन मुख चंद । तुझ वाणि अमृत रस लही, पामैं ते परमाणंद ॥४॥जि०॥ इक वचन श्री जिनराजनो, नय गमा भंग प्रधान । जे सुण रुचि थी ते लहै, निज तत्व सिद्ध अमान ॥५॥जि०॥ जे खेत्र विचरो नाथजी, ते खेत्र अति सुपसत्थ' । तुझ विरह जे क्षण जाय छे, ते मानीय अकयस्थ ॥६॥जि०॥ श्री वीतराग 'दसणं बिना, वीवोज काल अतीत । ते प्रफल मिच्छा दुक्कडं, तिविहं तिविह नी रीति ॥७॥जि०॥
जिस क्षेत्र में आप विचरते हो, वह क्षेत्र ही सपल हैं।
...२-अकृता ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org