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पंचम खण्ड
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इंद्री विषय सकल नो द्वार ए, बंध हेतु दृढ़ एहो जी। अभिनव'कर्म ग्रहें तनु योग थी, तिरण थिर करीइं देहो जी।।गु०॥३।। आतम वीर्य स्फुरे पर संग जे, ते कहीयें तनु योगो जी। चेतन सत्ता रे परम अयोगी छे, निरमल थिर उपयोगो जी।।गु०।४।। जावत कंपन तावत बंध छ, भाष्यं भगवई अंग्रेजी। ते माटें ध्रुव' तत्व रसें रमई,माहण' ध्यान प्रसंगें जी ।।गु०॥५॥ वीर्य सहाई रे प्रातम धर्म नो, अचल सहज अप्रयासो जी। ते प्रभाव सहायी किम करई, मुनिवर गुण ग्रावासो जी।।गु०।।६।। खंती मुत्ति युत्त अकिंचनी, शौच ब्रह्मधर धीरो जी। विषम परिसह सेन्य विदारिवा, वीर परम सौंडीरो" जी ।।गु०॥७॥ कर्म पटल दल क्षय करवा रसी, प्रातम ऋद्धि समृद्धो जी। 'देवचंद्र' जिन पारणा पालता, वंदो गुरु गुण वृद्धो जी ।।गु०।।८।।
नवम साधु स्वरुप वर्णन सज्माय
(ढाल-रसीया नी देसी) धरम धुरंधर मुनिवर सेवीए,' नाण चरण संपन्न सुगुण नर इंद्री भोग तजी निज सुख भजी, भव'चारक उदविन्न सु० ॥१०॥१॥
१-शरीर के कारण ही नये कर्मबंध होते हैं। २-निश्चल ३-मुनि १-शूरवीर २-प्रशंसा करनी चाहिये ३-संसार रुपी कैद से उद्विग्न
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