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पंचम खण्ड
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जे दुविध' दुक्कर तप तपे, भव' पास पास विरत्त । धन साधु मुनि ढंढण समा, ऋषि खंदग हो तीसग कुरुदत्त।।भ०।। निज प्रातम कंचन भरणी, तप अगनी करि सोधत ।। नव नव लबधि बल छतै, उपसर्गे हो ते संत महंत ॥६॥o!! धन्य तेह जे धन गृह तजी, तन नेह नो करी+ छह । निस्सग वन वासे वसे, तपधारी हो जे अभिग्रह गेह ॥भ०॥१०॥ धन्य तेह गछ गुफा तज़ी, जिन कल्पी' भाव अफंद । परिहार विशुद्धी तप तपे, ते वंदे हो 'देवचंद' मुनिंद ।।भ०॥११॥
ढाल ३-सत्त्वभावना की
(हिव राणी पदमावती "ए देशी) . रे जीव ! साहस आदरो, मत थावी दीन । सुख दुख संपद आपदा, पूर्व करम आधीन ।।रे०।।१।। क्रोधादिक वसिं रण समे, सह्या दुक्ख अनेक । ते जो समतामां सहे, तो तुज खरो विवेक ॥२०॥२॥ सर्व अनित्य अशास्वतो, ५ जे दीसै एह ।। तन धन सयण' सगा सह, तिणसुं स्यो नेह ।।रे०।३।। जिम बालक वेल तणा, घर करीय रमंत ।
तेह छते अथवा ढहै, निज निज गृह जंत ॥रे०॥४॥ पाठान्तर-+करे स्यं स्यउ
१-बाह्य आभ्यन्तर तप २-सांसारिक बंधन। ३-जिनकल्पी ४-नेव साधुओं का समूह मिलकर तप विशेष करता है। ५-अनित्य ६-स्वजन ७-रेत -गिर - जाने पर -घर चले जाते हैं।
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