________________
१६०
श्रीमद् देवचंद पद्य पीयूष
निर्मल ध्याने तत्व अभेदता रे, निर विकल्प ध्याने तदरुप रे । घाती'विलये निज गुण उलस्या रे, निर्मल केवल आदि अनूप रोध.। ३४। थयो अयोगी शैलेसी'करी रे, टाल्यो सर्व संजोगी भाव रे । अातम प्रातम रूपे परिणम्यो रे, प्रगटयो पूरण वस्तु स्वभाव रे ।ध.।३५। सहज अकृत्रिम वलि असंगता रे, निरुप (म) चरित वलि निरद्वंद रे। निरुपम अव्या बाध सुखी थया रे, श्री गज सुकुमाल मुनिंद रे ।ध.।३६। नित प्रति एहवा मुनि संभारीये रे, धरीये एहिज मनमाही ध्यान रे । इच्छा कीजे ए मुनि भावनीरे, जिम लहीये अनुभव परम निधान रोध.।३७ खरतर गच्छ पाठक दीपचंद नो रे, देवचंद वंदे मुनिराय रे ।। सकल संघ सुख कारण साधु जी रे, भव भव होजो सुगुरु सहायरे।ध.।३८।
गहूली हाल-स्वामी सीमंधरा ! वीनति, ए देशी शासननायक वीर नो, गणधर गौतम स्वाम रे । शील शिरोमणी तेहनो, शिष्य ज अभिराम रे ।।शा०॥१॥ वीर जिन वचन त्रिपदी लही, जेणेकर्या द्वादश अंग रें। दुःषम काल में जेहनो, विस्तयों तीर्थ अति चंग रे ॥शा०॥२॥
१-चार छातीकर्म-ज्ञानावरणीय, दशनावरणीय मोहनीय और अन्तराय के क्षय से केबलज्ञान प्राप्त किया। २-शैलेशी करण-जिसमें प्रात्मा मेरु की तरह निश्चल, निष्प्रकंप बन जाता है। स्वरूपस्थ हो जाता है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org