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श्रीमद् देवचन्द्र पच पीयूष
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ढाल २--तप भावना की
(कुमर इसौ मन चितवं रे-ए देशी) रयणावली कनकावली मुक्तावली गुण रयण । वज्रर्थमध्य ने जव मध्य ए तप कर ने हो जीपो रिपु मयण ॥११॥ भवियण तप गुण आदरो रे, तप तेजे रे छीजे सह कर्म । विषय विकार दूरे टले रे, मन गंजे रे मंजे भव भर्म ।।भ०।।२।। जोग' जय इंद्रीय' जय तहा, तव कभ्म' सूडण सार । उवहारण योग दुहा करी, सिव साधे रे सुधा अरणगार भ०॥३॥ जिम जिम प्रतिज्ञा दृढ़ थको, वेरागी तप सी मुनि राय । तिम तिम अशुभ दल छीजइ, रवि तेजे रेजिम सीत विलाय।।भ०।४। जे भिक्ष पडिमा प्रादरे, भासण अकंप सुधीर । अति लीन समता भाव में, तृण नी पर हो जाणंत सरीर।।भ०॥५॥ जिण' साधु तप तरवार थी, सूडीयो मोह गयंद । तिण साधु नो हुँ दास छु, नित्य बंदु हो तस पय अरविंद।।भ०।६।। आयार सुयगडांग में, तिम कह्यो भगवई अंग । उत्तर झयण गुण तीस में, तप सगे हो सह कर्म नो भंगाभ०।७।। वज्ज तीस में
१-योगों को जीतने से २-इन्द्रियां जीती जाती हैं। ३-कर्म सूदन तप ४-उपधान. और योगोद्वहन करके ५-सूर्यका तेज ६-जिन मुनियों ने तपरूपी तलवार के द्वारा मोह रूपी हाथी का विनाश कर दिया है, उनका में दास हूँ, उनके चरण करण कमल को मैं नित्य वन्दन करता हूं।
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