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पंचम खण्ड
[ १७७.
करम' कतरणी सिव' नीसरणी, झाण ठारप-अनुसरणी जी। चेतन राय तरणी ए घरणी,' भव समुद्र दुख हरणी जी ॥भा०।३।। जयवता पाठक गुणधारी, राजसार सुविचारी जी । निरमल ज्ञान धरम संभारी, पाठक सहु हितकारी जी ॥भा०।।४।। राजहंस सहगुरु सुपसावे, 'देवचंद' गुण गावे जी । भविक जीव जे भावना भावे, तेह अमित सुख पावे जी ॥भा०।।५। जेसलमेरे साह सुत्यागी, वरधमान बड़भागी जी । पुत्र कलत्र सकल सोभागी, साधु गुण ना रागी जी भा०।।६।। तसु आग्रह थी+ भावना भावी, ढाल बंध में गावी जी। भणस्ये गुणस्ये जे ए ज्ञाता, लहस्ये ते सुख शाता जी ।।भा०॥७॥ मन शुद्धे. पंच भावना भावो, पावन निज गुण पावो जी।
मन मुनिवर गुण संग वसावो, सुख संपति गृह थावो जी ।भा॥८॥ पाठान्तर-+करी संवत १७६१ वर्षं चैत्र वदी ११ सोमे श्रीराज देंगे
मिलिप्सितं पुस्तकं जयतुः ।।
१-ये पांच भावना कार्मों को नाश करने में कतरणी समान है २-मोक्ष के सोपान ३-गृहिणी-पत्नी।
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