Book Title: Shrimad Devchand Padya Piyush
Author(s): Hemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 278
________________ १७८ ] श्रीमद् देवचंद पद्य पीयूष ५--प्रभंजना--सज्झाय (ढाल १-नाटकीया नी नंदनी, ए देशी) गिरि वैताढय ने उपरे, चक्रांका नयरी' रे लो ॥ अहो च० ॥ चक्रायुधराजा तिहा, जीत्या सवि वयरी रे लो ॥हो जी०।१।। मदनलता तसु सुंदरी, गुण शील अचंभा रे लो ।।अहो गु०॥ पुत्री तास प्रभंजना, रूपे रति रंभा रे लो ॥ अहो रू० ।।२।। विद्याधर भूचर' सुता, बहु मिलि एक पंथे रे लो | अहो ब० ॥ राधावेध मंडावियो, वर वरवा खंते रे लो ।। अहो व० ॥ ३ ॥ कन्या एक हजार थी, प्रभंजना चाले रे लो ॥ अहो प्र० ।। आर्य खंड में प्रावतां, वनखंड विचाले रे लों ॥ अहो व० ॥ ४ ॥ निम्र थी' सुप्रतिष्ठिता, बहु गुरूगी संग रे लो ॥ अहो व० ।। साधु विहारे विचरता, वंदे मन रंगे रे लो ॥ अहो वं० ॥ ५ ॥ आर्या पूछे एवड़ो, उमाहो स्यो छे रे लो ||अहो उ०॥ विनये कन्या वीनवे, वर वरवा इच्छे रे लो || अहो व० ॥ ६ ॥ ए स्यो हित जाणों तुम्हें, एहथी नवि सिद्धि रे लो ।। अहो ए० ॥ विषय हला हल विष तिहां, शी अमृत बुद्धि रे लो ।। अहो शी० ॥७॥ भोग - संग कारमा कहया, जिनराज सदाई रे लो ॥ अहो जि० ॥ राग-द्वेष संगे वधे, भव भ्रमण सदाई रे लो ।। अहो. भ० ॥ ८ ॥ १-नगरी २-वैरी-शत्रु ३-राजपुत्री ४-एक मार्ग में ५-साध्वी जी ६-दुखदायी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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