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सिद्ध' समी ए संग्रह' रे अप्पा, पर रंगे पलटाय । संगांगी भावे कह्यो रे अप्पा, अशुद्ध विभाव अपाय रे ।। सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हिंत उपदेश || १४॥ शुद्ध निश्चय नये करी रे अप्पा, आतम भाव अनंत । तेह अशुद्ध नये करी रे अप्पा, दुष्ट विभाव महंत रे ।। सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश || १४ || द्रव्यकर्म कर्त्ता धयो रे अप्पा, नय अशुद्ध व्यवहार | तेह निवारो स्वपदे रे अप्पा, रमता शुद्ध व्यवहार रे ॥ सुज्ञानी अप्पा ! साँभल हिंत उपदेश || १५शा व्यवहारे समरे थके रे अप्पा, समरे निश्चय तिबार । प्रवृत्ति समारे विकल्पने रे अप्पा, ते स्थिर परिणति सार रे ॥ सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश || १६ | पुद्गल ने पर जीव थी रे अप्पा कीधो भेद विज्ञान । बाधकता दूरेटली रे अप्पा, हवे कुरण रोके ध्यान रे ।। सुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश || १७ ।। आलंबन भावन वशे रे अप्पा, धरम-ध्यान प्रकटाय । 'देवचंद'' पद साधवा रे अप्पा एहिज शुद्ध उपाय रे ।। मुज्ञानी अप्पा ! सांभल हित उपदेश || १८||
श्रीमद् देवचन्द्र पद्ये पीयूष
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१ - संग्रह नय की अपेक्षा आत्मा सिद्ध समान है । २- शुद्ध आत्मा भी कर्म संयोग शुद्ध बनता है । ३ - अशुद्ध व्यवहार से यह जीव परभाव का कर्त्ता है 1 ४- परभाव के कर्तृत्व का निवारण होना और स्वभाव की कत्तृता आना ही शुद्ध व्यवहार है । ५ - शुद्ध आलंबन और भावना दोनों मिलने से धर्म ध्यान प्रकट होता है । ६- परमात्मपद की प्राप्ति के लिये शुद्ध प्रालंबन और भावना ही मुख्य उपाय है ।
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