________________
१३४ ]
इति श्री विवेक परिवार लेखक पाठकयो श्री
सभाय संपूर्ण ।। भूर्यात् ॥
सं. १८१७ ना वर्षे द्वितीय श्रावरण बदि ११ शुक्रे ॥ भरणशाली श्री पानाचंद्र कपूरचंद पठनार्थ ।।
Jain Educationa International
आगम अमृत
|| प्रा० ॥३॥
1
आगम अमृत पीजिये, बहु श्रुत श्री गुरु पासें रे । श्रोता गुरण में घरी, विनय करी उल्लासे रे ॥०॥ ॥ शुद्ध भाषक समताधारी, पंचम कालें थोड़ा रे । दीसे बहु आडंबरी, जेहवा उद्धत घोड़ा रे ||०||२|| बस्तु धरम नी देशना, जे दीइ हित राखी रे | कीजें तेहनी सेवना, उपगारी गुण दाखी रे आतम तत्त्व प्रकाश में, जे भवियरण नित भीले रे अनुभव रस प्रास्वाद थी, थुरणीइ तेह नय निक्षेप प्रमाण थी, स्यादनु' बंध तत्वा' तत्व गवेषणा, लहीइ परम तत्वारथ श्रद्धान जे, समकित कहे भासन रमण पर लही, भेद रहित मति स्वस्तिक पूजन भावना, करतां भक्ति पुण्य महोदय पामीइं, केवल ऋद्धि विशाला रे || मा०||७||
पाया रे || ० || ६ ||
रसाला रे ।
१- स्यादवाद शैलीमयो
श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष
रसीले रे । श्राश्र
सुरीते रे ।
प्रतीते रे ।। प्रा०॥५॥ जिनराया रे ।
-तत्त्व-प्रतस्व का विबेक
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org