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धोमवू देवचन्द्र पथ पीयूष ।
गुप्ति प्रथम ए साधु ने रे, धरम सुल्क नो कंद । वस्तु धरम चिंतन मा रम्या रे, साधे पूर्णानंद रे ।।मु०॥३॥ योग ते पुद्गल योग- रे, खींचे अभिनय कर्म । योग वरतना कंपना रे, नवि ए आतम धर्म रे ।।मु०॥४॥ वीर्य चपल पर संगमी रे, एहन साधक पक्ष । ज्ञान चरण सह कारता रे, वरतावें मुनि दक्ष रे।।मु०।५।। सविकल्प गुण साधना रे, ध्यानी ने न सुहाय । निर्विकल्प अनुभव रसी रे, प्रात्मानंदी थाय रे ।।११।।६।। रत्नत्रयी' नी भेदता रे, एह समल विवहार । त्रिगुण वीर्य एकत्वता रे, निर्मल आत्माचार रे।।मु०॥७॥ . शुक्ल ध्यान श्रु ता लंबना रे, ए पिण साधन दाव । वस्तु धरम उत्सर्ग मारे, गुण गुणी एक स्वभाव रे ।।मु०॥८॥ पर सहाय गुण वर्त्तना रे, वस्तु धरम न कहाय । साध्य रसी तो किम ग्रहें रे, साधु चित्त सहाय रे।।मु०।६।। आत्म रसी आत्मालयी रे, ध्यातां तत्व अनंत । स्याद्वाद ज्ञानी मुनी रे, तत्व रमण उपशांत रे ।मु०॥१०॥ नवि अपवाद रुचि कदा रे, शिव रसीया अरणगार । शक्ति यथा' गम तेसेवता रे, निदें कर्म प्रचार रे ।।१०।११।।
१-ज्ञानादि का भेद, व्यवहार से है, तोनों की एकता निमंल आत्मरमरणता है। २-वीर्योल्लास से सेवन करते हुए।
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